आचार्य समंतभद्र
रत्नकरण्डकश्रावकाचार्य ग्रन्थ के कर्ता आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी हैं। प्रतिभाशाली आचार्यों, समर्थ विद्वानों एवं पूज्य महात्माओं में आपका स्थान बहुत ऊँचा है। आप समन्तातभद्र थे - बाहर भीतर सब ओर से भद्र रूप थे आप बहुत बड़े योगी, त्यागी, तपस्वी एवं तत्त्वज्ञानी थे। आप जैन धर्म एवं सिद्धांतों के मर्मज्ञ होने के साथ हे साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यकोषादि ग्रन्थों में पूरी तरह निष्णात थे। आपको ‘स्वामी’ पद से विशेष तौर पर विभूषित किया गया है।
जीवनकाल - आपने किस समय इस धरा को सुशोभित किया इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। कोई विद्वान आपको ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का बताते हैं तो कोई ईसा की सातवीम-आठवीं शताब्दी का बताते हैं। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात् एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं। अतः आप असन्दिग्ध रूप से विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान् विद्वान् थे। अभी आपके सम्बन्ध में यही विचार सर्वमान्य माना जा रहा है।
संसार की मोहममता से दूर रहने वाले अधिकांश जैनाचार्यों के माता-पिता तथा जन्मस्थान आदि का कुछ भी प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। समन्तभद्र स्वामी भी इसके अपवाद नहीं है। श्रवणबेलगोला के विद्वान् श्री दौर्बलिजिनदास शास्त्री के शास्त्र भंडार में सुरक्षित आप्तमीमांसा की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के निम्नांकित पुष्पिकावाक्य ‘इति श्री फणिमंडलालंकार स्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम्’ से स्पष्ट है कि समन्तभद्र फणिमंड्लान्तर्गत उरगपुर के राजा के पुत्र थे। इसके आधार पर उरगपुर आपकी जन्मभूमि अथवा बाल क्रीड़ा भूमि होती है। यह उरग्पुर ही वर्तमान का ‘उरैयूर’ जान पड़ता है। उरगपुर चोल राजाओं की प्रचीन राजधानी रही है। पुरानी त्रिचनापल्ली भी इसी को कहते हैं। आपका प्रारम्भिक नाम शान्तिवर्मा था। दीक्षा के पहले आपकी शिक्षा या तो उरैयूर हुई अथवा कांची य मदुरै में हुई जान पड़्ती है क्योंकि ये तीनों ही स्थान उस समय दक्षिण भारत में विद्य के मुख्य केन्द्र थे। इन सब स्थानों में उस समय जैनियॊं के अच्छे-अच्छे मठ भी मौजूद थे। आपकी दीक्षा का स्थान कांची या उसके आसपास कोई गांव होना चाहिए। आप कांची के दिगम्बर साधु थे। "कांच्यां नग्नाटकोऽहं"।
पितृकुल की तरह समन्तभद्रस्वामी के गुरुकुल का भी कोई स्पष्ट लेख नहीं मिलता है, और न ही आपके दीक्षा गुरु के नाम का ही पता चल पाया है। आप मूल्संघ के प्रधान आचार्य थे। श्रवणबेलगोल के कुछ शिलालेखों से इतना पता चलता है कि आप श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्तमुनि के वंशज पद्मनन्दि अपर नाम कोन्डकुन्द मुनिराज उनके वंशज उमास्वाति की वंशपरम्परा में हुए थे। (शिलालेख नं. ४०)
बड़े ही उत्साह के साथ मुनिधर्म का पालन करते हुए वे जब ‘मणुवकहल्ली’ ग्राम में धर्म ध्यान सहित मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय असाता वेदनीय कर्म के प्रबल उदय से आपको ‘भस्मक’ नाम का रोग हो गया था। मुनिचर्या में इस रोग का शमन होना असंभव जानकर आप अपने गुरु के पास पहँचे और उनसे रोग का हाल कहा तथा सल्लेखना का समय नहीं आया है और आप द्वारा वीरशासन कार्य के उद्धार की आशा है। अतः जहाँ पर जिस वेष में रहकर रोगशमन के योग्य तृप्ति भोजन प्राप्त हो वहाँ जाकर उसी वेष को धारण कर लो। रोग उपशान्त होने पर फिर से जैनदीक्षा धारण करके सब कार्यों को सम्भाल लेना। गुरु की आज्ञा लेकर आपने दिगम्बर वेष का त्याग किया। आप वहाँ से चलकर काँची पहुँचे और वहाँ के राजा के पास जाकर शिवभोग की विशाल अन्न राशि को शिवपिण्ड को खिला सकने की बात कही। पाषाण निर्मित शिवजी की पिण्डी साक्षात् भोग ग्रहण करे इससे बढ़कर राजा को और क्या चाहिए था। वहाँ के मन्दिर के व्यवस्थापक ने आपको मन्दिर जी में रहने की स्वीकृति दे दी। मन्दिर के दिवाड़ बन्द करके वे स्वयं विशाल अन्नराशि को खाने लगे और लोगों को बता देते थे कि शिवजी ने भोग को ग्रहण कर लिया है। शिव भोग से उनकी व्याधि धीरे-धीरे ठीक होने लगी और भोजन बचने लगा। अन्त में गुप्तचरों से पता लगा कि ये शिवभक्त नहीं है। इससे राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसने इन्हें यथार्थता बताने को कहा। उस समय समन्तभद्र ने निम्न श्लोक में अपना परिचय दिया -
जीवनकाल - आपने किस समय इस धरा को सुशोभित किया इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। कोई विद्वान आपको ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का बताते हैं तो कोई ईसा की सातवीम-आठवीं शताब्दी का बताते हैं। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात् एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं। अतः आप असन्दिग्ध रूप से विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान् विद्वान् थे। अभी आपके सम्बन्ध में यही विचार सर्वमान्य माना जा रहा है।
संसार की मोहममता से दूर रहने वाले अधिकांश जैनाचार्यों के माता-पिता तथा जन्मस्थान आदि का कुछ भी प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। समन्तभद्र स्वामी भी इसके अपवाद नहीं है। श्रवणबेलगोला के विद्वान् श्री दौर्बलिजिनदास शास्त्री के शास्त्र भंडार में सुरक्षित आप्तमीमांसा की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के निम्नांकित पुष्पिकावाक्य ‘इति श्री फणिमंडलालंकार स्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम्’ से स्पष्ट है कि समन्तभद्र फणिमंड्लान्तर्गत उरगपुर के राजा के पुत्र थे। इसके आधार पर उरगपुर आपकी जन्मभूमि अथवा बाल क्रीड़ा भूमि होती है। यह उरग्पुर ही वर्तमान का ‘उरैयूर’ जान पड़ता है। उरगपुर चोल राजाओं की प्रचीन राजधानी रही है। पुरानी त्रिचनापल्ली भी इसी को कहते हैं। आपका प्रारम्भिक नाम शान्तिवर्मा था। दीक्षा के पहले आपकी शिक्षा या तो उरैयूर हुई अथवा कांची य मदुरै में हुई जान पड़्ती है क्योंकि ये तीनों ही स्थान उस समय दक्षिण भारत में विद्य के मुख्य केन्द्र थे। इन सब स्थानों में उस समय जैनियॊं के अच्छे-अच्छे मठ भी मौजूद थे। आपकी दीक्षा का स्थान कांची या उसके आसपास कोई गांव होना चाहिए। आप कांची के दिगम्बर साधु थे। "कांच्यां नग्नाटकोऽहं"।
पितृकुल की तरह समन्तभद्रस्वामी के गुरुकुल का भी कोई स्पष्ट लेख नहीं मिलता है, और न ही आपके दीक्षा गुरु के नाम का ही पता चल पाया है। आप मूल्संघ के प्रधान आचार्य थे। श्रवणबेलगोल के कुछ शिलालेखों से इतना पता चलता है कि आप श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्तमुनि के वंशज पद्मनन्दि अपर नाम कोन्डकुन्द मुनिराज उनके वंशज उमास्वाति की वंशपरम्परा में हुए थे। (शिलालेख नं. ४०)
बड़े ही उत्साह के साथ मुनिधर्म का पालन करते हुए वे जब ‘मणुवकहल्ली’ ग्राम में धर्म ध्यान सहित मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय असाता वेदनीय कर्म के प्रबल उदय से आपको ‘भस्मक’ नाम का रोग हो गया था। मुनिचर्या में इस रोग का शमन होना असंभव जानकर आप अपने गुरु के पास पहँचे और उनसे रोग का हाल कहा तथा सल्लेखना का समय नहीं आया है और आप द्वारा वीरशासन कार्य के उद्धार की आशा है। अतः जहाँ पर जिस वेष में रहकर रोगशमन के योग्य तृप्ति भोजन प्राप्त हो वहाँ जाकर उसी वेष को धारण कर लो। रोग उपशान्त होने पर फिर से जैनदीक्षा धारण करके सब कार्यों को सम्भाल लेना। गुरु की आज्ञा लेकर आपने दिगम्बर वेष का त्याग किया। आप वहाँ से चलकर काँची पहुँचे और वहाँ के राजा के पास जाकर शिवभोग की विशाल अन्न राशि को शिवपिण्ड को खिला सकने की बात कही। पाषाण निर्मित शिवजी की पिण्डी साक्षात् भोग ग्रहण करे इससे बढ़कर राजा को और क्या चाहिए था। वहाँ के मन्दिर के व्यवस्थापक ने आपको मन्दिर जी में रहने की स्वीकृति दे दी। मन्दिर के दिवाड़ बन्द करके वे स्वयं विशाल अन्नराशि को खाने लगे और लोगों को बता देते थे कि शिवजी ने भोग को ग्रहण कर लिया है। शिव भोग से उनकी व्याधि धीरे-धीरे ठीक होने लगी और भोजन बचने लगा। अन्त में गुप्तचरों से पता लगा कि ये शिवभक्त नहीं है। इससे राजा बहुत क्रोधित हुआ और उसने इन्हें यथार्थता बताने को कहा। उस समय समन्तभद्र ने निम्न श्लोक में अपना परिचय दिया -
"काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः
पुण्डोण्ड्रे शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट्।
वाराणस्यामभूर्व शशकरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी
राजन् यस्याऽस्ति शक्तिः स वदतु-पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी॥
पुण्डोण्ड्रे शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट्।
वाराणस्यामभूर्व शशकरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी
राजन् यस्याऽस्ति शक्तिः स वदतु-पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी॥
कांची में मलिन वेषधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुस नगर में भस्म रमाकर शरीर को
श्वेत किया, पुण्डोण्ड्र में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दशपुर नगर में मिष्ट
भोजन करने वाला सन्यासी बना, वाराणसी में श्वेत वस्त्रधारी तपस्वी बना।
राजन् आपके सामने दिगम्बर जैनवादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो मुझसे
शास्त्रार्थ कर ले।
राजा ने शिवमूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया। समन्तभद्र कवि थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन शुरु किया। जब वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का स्तवन कर रहे थे, तब चन्द्रप्रभु भगवान की मूर्ति प्रकट हो गई। स्तवन पूर्ण हुआ। यह स्तवन स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है। यह कथा ब्रह्म नेमिदत्त कथाकोष के आधार पर है।
देश में जिस समय बौद्धादिकों का प्रबल आतंक छाया हुआ था और लोग उनके नैरात्म्यवद, शून्यवाद, क्षणिकवादादि सिद्धान्तों से संत्रस्त थे, उस समय दक्षिन भारत में आपने उदय होकर जो अनेकान्त एवं स्याद्वाद का डंका बजाया वह बहुत ही महत्त्व का है एवं चिरस्मरणीय है। आपको जिनशासन का प्रणेता तक लिखा गया है। आपके परिचय के सम्बन्ध में निम्न पद्य है -
राजा ने शिवमूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया। समन्तभद्र कवि थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन शुरु किया। जब वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का स्तवन कर रहे थे, तब चन्द्रप्रभु भगवान की मूर्ति प्रकट हो गई। स्तवन पूर्ण हुआ। यह स्तवन स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है। यह कथा ब्रह्म नेमिदत्त कथाकोष के आधार पर है।
देश में जिस समय बौद्धादिकों का प्रबल आतंक छाया हुआ था और लोग उनके नैरात्म्यवद, शून्यवाद, क्षणिकवादादि सिद्धान्तों से संत्रस्त थे, उस समय दक्षिन भारत में आपने उदय होकर जो अनेकान्त एवं स्याद्वाद का डंका बजाया वह बहुत ही महत्त्व का है एवं चिरस्मरणीय है। आपको जिनशासन का प्रणेता तक लिखा गया है। आपके परिचय के सम्बन्ध में निम्न पद्य है -
"आचार्योंऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं
दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम्।
राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलायामिलाया-
माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्॥"
दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम्।
राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलायामिलाया-
माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्॥"
मैं आचार्य हूँ, कवि हूँ, शास्त्रर्थियों में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ,
ज्योतिषि हूँ, वैद्य हूँ, मान्त्रिक हूँ, तान्त्रिक हूँ, हे राजन्! इस
सम्पूर्ण पृथ्वी में मैं आज्ञासिद्ध हूँ। अधिक क्या कहूँ, सिद्ध सारस्वत
हूँ।
शुभचन्द्राचार्य ने आपको ‘भारत भूषण’ लिखा है, आप बहुत ही उत्तमोत्तम गुणों के स्वामी थे। फिर भी कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामक चार गुण आप में असाधारण कोटि की योग्यता वाले थे जैसा कि आज से ग्यारह सौ वर्ष पहिले के विद्वान् जिनसेनाचार्य ने निम्न वाक्य से आदिपुराण में स्मरण किया है -
शुभचन्द्राचार्य ने आपको ‘भारत भूषण’ लिखा है, आप बहुत ही उत्तमोत्तम गुणों के स्वामी थे। फिर भी कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामक चार गुण आप में असाधारण कोटि की योग्यता वाले थे जैसा कि आज से ग्यारह सौ वर्ष पहिले के विद्वान् जिनसेनाचार्य ने निम्न वाक्य से आदिपुराण में स्मरण किया है -
"कवीनां गमकांना च वादिनां वाग्मिनामपि।
यशः समन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूड़ामणीयते॥"
यशः समन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूड़ामणीयते॥"
यशोधर
चरित के दर्ता महाकवि वादिराज सूरि ने आपको उत्कृष्ट काव्य माणिक्यों का
रोहण (पर्वत) सूचित किया है। अलंकार चिन्तामणि में अजितसेनाचार्य ने आपको
‘कविकुंजर’ ‘मुनिवंद्य’ और ‘निजानन्द’ लिखा है। वरांगचरित्र में श्री
वर्धमान सूरि ने आपको महाकवीश्वर और सुतर्कशास्त्रामृत का सागर बताया है।
ब्रह्मअजित ने हनुम्च्चरित्र में आपको भव्यरूप कुमुदों को प्रफुल्लित करने
वाला चन्द्रमा लिखा है, तथा साथ में यह भी प्रकट किया है कि वे कुवादियों
की वादरूपी खाज (खुजली) को मिटाने के लिए अद्वीतीय महौषधि थे। इसके अलावा
भी श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में आपको ‘वादीभवज्रांकुशसूक्तिजाल
स्फुटरत्नदीप’ वादिसिंह, अनेकान्त जयपताका आदि अनेक विशेषणों से स्मरण किया
गया है।
आपका वाद क्षेत्र संकुचित नहीं था। आपने उसी देश में ही अपने वाद की विजय दुंदुभि नहीं बजाई, जिसमें वे उत्पन्न हुए थे बल्कि सारे भारतवर्ष को अपने वादका लीला स्थल बनाया था। करहाटक नगर में पहुँचने पर वहाँ के राजा के द्वारा पूछे जाने पर आपने अपना पिछला परिचय इस प्रकार दिया है -
आपका वाद क्षेत्र संकुचित नहीं था। आपने उसी देश में ही अपने वाद की विजय दुंदुभि नहीं बजाई, जिसमें वे उत्पन्न हुए थे बल्कि सारे भारतवर्ष को अपने वादका लीला स्थल बनाया था। करहाटक नगर में पहुँचने पर वहाँ के राजा के द्वारा पूछे जाने पर आपने अपना पिछला परिचय इस प्रकार दिया है -
"पूर्वं पटिलपुत्रमध्यनगरे भेरी मयाताडिता
पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचिपुरे वैदिशे।
प्राइतोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं वैदिशे।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूल्विक्रीडितम्॥"
पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचिपुरे वैदिशे।
प्राइतोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं वैदिशे।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूल्विक्रीडितम्॥"
हे राजन्, सबसे पहिले मैंने पाटलिपुत्र नगर में शास्त्रार्थ के लिए भेरी
बजवाई थी, फिर मालव, सिन्धु, ढक्क, कांची आदि स्थानों पर जाकर भेरी ताड़ित
की। अब बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों से परिपूर्ण इस कर्हाटक नगर में आया हूँ।
मैं तो शास्त्रार्थ की इच्छा रखता हुआ सिंह के समान घूमता फिरता हूँ।
‘हिस्ट्री आँफ कन्नडीज लिट्रेचर’ के लेखक मिस्टर एडवर्ड पी. राईस ने
समन्तभद्र को तेजपूर्ण प्रभावशाली वादी लिखा है और बताया है कि वे सारे
भारतवर्ष में जैनधर्म का प्रचार करनेवाले महान् प्रचारक थे। उन्होंने वाद
भेरी बजने का दस्तूर का पूरा लाभ उठाया और वे बड़ी शक्ति के साथ जैनधर्म के
स्याद्वाद सिद्धान्त को पुष्ट करने में समर्थ हुए हैं।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आपने अनेक स्थानों पर वाद की भेरी बजवाई थी और किसी ने उसका विरोध नहीं किया। इस सम्बन्ध में स्वर्गीय पंडित, श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखते हैं कि ‘इस सारी सफलता का कारण उनके अन्तःकरण की शुद्धता, चारित्र की निर्मलता एवं अनेकान्तात्मक वाणी का ही महत्त्व था, उनके वचन स्याद्वाद न्याय की तुला में तुले होते थे और इसीलिए उनपर पक्षपात क भूत सवार नहीं होता था। वे परीक्षा प्रधानी थे।’ स्वामी समन्तभद्र द्वारा विरचित निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं -
१. स्तुतिविद्या (जिनशतक) २. युक्त्यनुशासन
३. स्वयम्भूस्तोत्र ४. देवागम (आप्तमीमांसा) स्तोत्र
५. रत्नकरण्डकश्रावकाचार
अर्हद्गुणों की प्रतिपादक सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ रचने की उनकी बड़ी रुचि थी।
उन्होंने अपने ग्रन्थ स्तुति विद्या में "सुस्तुत्यां व्यसन" वाक्य द्वारा अपने आपको स्तुतियाँ रचने का व्यसन बरलाया है। स्वयंभूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन आपके प्रमुख स्तुति ग्रन्थ हैं। इन स्तुतियों में उन्होंने जैनागम का सार एवं तत्त्वज्ञान को कूट-कूट कर भर दिया है। देवागम स्तोत्र में सिर्फ आपने ११४ श्लोक लिखे हैं। इस स्तोत्र पर अकलंकदेव ने अष्टशती नामक ८०० श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी जो बहुत ही गूढ़ सूत्रों में है। इस वृत्ति को साथ लेकर श्री विद्यानन्दाचार्य ने ‘अष्टसहस्री’ टीका लिखी जो ८००० श्लोक परिमाण है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ कितने अधिक अर्थगौरव को लिए हुए है। इसी ग्रन्थ में आचार्य महोदय ने एकान्तवादियों को स्वपर वैरी बताया है। ‘एकान्तगृहरक्तेषुनाथ स्वपरवैरिषु’। इन ग्रन्थों का हिन्दी अर्थ सहित प्रकाशन हो चुका है।
उपर्युक्त उपलब्ध ग्रन्थों के अलावा आपके द्वारा रचित निम्न ग्रन्थों के भी उल्लेख मिलते हैं जो उपलब्ध नहीं हो पाये हैं १. जीवसिद्धि २. तत्त्वानुशासन ३. प्राकृत व्याकरण ४. प्रमाणपदार्थ ५. कर्मप्राभृत टीका ६. गन्धहस्तिमहाभाष्य।
महावीर स्वामी के पश्चात् अनेक महान् आचार्य हमारे यहाँ हुए हैं, उनमें से किसी भी आचार्य एवं मुनिराजों के विषय में यह उल्लेख नहीं मिलता कि वे भविष्य में इसी भारतवर्ष में तीर्थंकर होंगे। स्वामी समन्तभद्र के सम्बन्ध में यह उल्लेख अनेक शास्त्रों में मिलता है। इससे इनके चरित्र का गौरव भी बढ़ जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आपने अनेक स्थानों पर वाद की भेरी बजवाई थी और किसी ने उसका विरोध नहीं किया। इस सम्बन्ध में स्वर्गीय पंडित, श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखते हैं कि ‘इस सारी सफलता का कारण उनके अन्तःकरण की शुद्धता, चारित्र की निर्मलता एवं अनेकान्तात्मक वाणी का ही महत्त्व था, उनके वचन स्याद्वाद न्याय की तुला में तुले होते थे और इसीलिए उनपर पक्षपात क भूत सवार नहीं होता था। वे परीक्षा प्रधानी थे।’ स्वामी समन्तभद्र द्वारा विरचित निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं -
१. स्तुतिविद्या (जिनशतक) २. युक्त्यनुशासन
३. स्वयम्भूस्तोत्र ४. देवागम (आप्तमीमांसा) स्तोत्र
५. रत्नकरण्डकश्रावकाचार
अर्हद्गुणों की प्रतिपादक सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ रचने की उनकी बड़ी रुचि थी।
उन्होंने अपने ग्रन्थ स्तुति विद्या में "सुस्तुत्यां व्यसन" वाक्य द्वारा अपने आपको स्तुतियाँ रचने का व्यसन बरलाया है। स्वयंभूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन आपके प्रमुख स्तुति ग्रन्थ हैं। इन स्तुतियों में उन्होंने जैनागम का सार एवं तत्त्वज्ञान को कूट-कूट कर भर दिया है। देवागम स्तोत्र में सिर्फ आपने ११४ श्लोक लिखे हैं। इस स्तोत्र पर अकलंकदेव ने अष्टशती नामक ८०० श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी जो बहुत ही गूढ़ सूत्रों में है। इस वृत्ति को साथ लेकर श्री विद्यानन्दाचार्य ने ‘अष्टसहस्री’ टीका लिखी जो ८००० श्लोक परिमाण है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ कितने अधिक अर्थगौरव को लिए हुए है। इसी ग्रन्थ में आचार्य महोदय ने एकान्तवादियों को स्वपर वैरी बताया है। ‘एकान्तगृहरक्तेषुनाथ स्वपरवैरिषु’। इन ग्रन्थों का हिन्दी अर्थ सहित प्रकाशन हो चुका है।
उपर्युक्त उपलब्ध ग्रन्थों के अलावा आपके द्वारा रचित निम्न ग्रन्थों के भी उल्लेख मिलते हैं जो उपलब्ध नहीं हो पाये हैं १. जीवसिद्धि २. तत्त्वानुशासन ३. प्राकृत व्याकरण ४. प्रमाणपदार्थ ५. कर्मप्राभृत टीका ६. गन्धहस्तिमहाभाष्य।
महावीर स्वामी के पश्चात् अनेक महान् आचार्य हमारे यहाँ हुए हैं, उनमें से किसी भी आचार्य एवं मुनिराजों के विषय में यह उल्लेख नहीं मिलता कि वे भविष्य में इसी भारतवर्ष में तीर्थंकर होंगे। स्वामी समन्तभद्र के सम्बन्ध में यह उल्लेख अनेक शास्त्रों में मिलता है। इससे इनके चरित्र का गौरव भी बढ़ जाता है।