आचार्य उमास्वामी

मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामी (ति) चालीस वर्ष ८ दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे। श्रवण्बेलगोल के ६५ वें शिलालेख में लिखा है - जिनचन्द्र स्वामी जगत प्रसिद्ध अन्वय में पद्मनन्दी प्रथम इस नाम को धारण करने वाले हुए। उन्हें अनेक ऋद्धि प्राप्त हुई थी उन्हीं कुन्दकुन्द के अन्वय में उमास्वामी मुनिराज हुए, जो गृद्धपिच्छाचार्य नाम से प्रसिद्ध थे उस समय गृद्धपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला कोई दूसरा विद्वान नहीं था।
श्रवणबेलगोल के २५८ वें शिलालेख में भी यही बात कही गई है उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूप रत्नों की माला प्रकट हुई उसी मुनि रत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध ओजस्वी आचार्य हुए उन्हीं के पवित्र वंश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता उमास्वामी मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे। अतएव उन्होंने मयूरपिच्छ के गिर जाने पर गृद्धपिच्छों को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गृद्धपिच्छाचार्य कहने लगे और गृद्धपिच्छाचार्य उनका उपनाम रूढ़ हो गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है। आचार्य विद्यानन्द ने भी अपने श्लोकवार्तिक में उनका उल्लेख किया है।
आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में जो वर्णन किया है वह अत्यन्त मार्मिक है। वे मुनिराज सभा के मध्य में विराजमान थे। जो बिना वचन बोले अपने शरीर से ही मानो मूर्तिधारी मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे थे। युक्ति और आगम में कुशल थे परीषहों का निरूपण करना ही जिनका एक कार्य था तथा उत्तमोत्तम आर्यपुरुषों जिनकी सेवा करते थे। ऎसे दिगम्बराचार्य गृद्धपिच्छाचार्य थे।
मैसूर प्रान्त के नगर्ताल्लुद के ४६वें शिलालेख में लिखा है - मैं तत्वार्थसूत्र के कर्ता, गुणों के मन्दिर एवं श्रुतकेवली के तुल्य श्रीउमास्वामी मुनिराज को नमस्कार करता हूँ।
तत्त्वार्थसूत्र की मूलप्रति के अन्त में प्राप्त होने वाले निम्न पद्य में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गृद्धपिच्छोपलक्षित उमास्वामी या मुनिराज की वन्दना की गई है।
इस तरह उमास्वाति आचार्य, उमास्वामी और गृद्धपिच्छाचार्य नाम से भी लोक में प्रसिद्ध रहे हैं। महाकवि पम्प (९४) ई. ने अपने आदिपुराण में उमास्वाति को आर्यनुतगृद्धपिच्छाचार्य लिखा है। इसी तरह चामुण्डराय (वि.सं. १०३५) ने अपने त्रिषष्ठिलक्षणपुराण तत्त्वार्थसूत्र कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है। आचार्य वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित में आचार्य गृद्धपिच्छ का उल्लेख किया है।
मैं उन गृद्धपिच्छ को नमस्कार करता हँ, जो महान् गुणों के आगार हैं, जो निर्वाण को उड़कर पहुँचने की इच्छा रखने वाले भव्यों के लिए पंखों का काम देते हैं। अन्य अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का गृद्धपिच्छाचार्य के रूप में उल्लेख किया है।
श्रवणबेलगोल के १०५ वें शिलालेख में लिखा है कि - आचार्य उमास्वामी ख्याति प्राप्त विद्वान थे। यतियों के अधिपति उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र प्रकट किया है, जो मोक्षमार्ग में उद्यत हुए प्रजाजनों के लिए उत्कृष्ट पाथेय का काम देता है। जिनका दूसरा नाम गृद्धपिच्छ है। उनके एक शिष्य बालक पिच्छ थे, जिनके सूक्ति रत्न मुक्त्यंगना के मोहन करने के लिए आभूषणों का काम देते हैं।
इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि उनका गृद्धपिच्छाचार्य नाम बहुत प्रसिद्ध थाआ वे जिनागम के पारगामी विद्वान थे। इसी से तत्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया।
गृद्धपिच्छाचार्य की प्रमुख रचना का नाम ‘तत्त्वार्थसूत्र’ है। प्रस्तुत ग्रन्थ दस अध्यायों में विभाजित है। इसमें जीवादि सप्ततत्त्वों का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में यह संस्कृत भाषा का एक मौलिक आद्य सूत्रग्रन्थ है। इसके पहले संस्कृत भाषा में जैन साहित्य की रचना हुई इसका कोई आधार नहीं मिलता। यह एक लघुकाय सूत्रग्रन्थ होते हुए भी उसमें प्रमेयों का बडी सुन्दरता से दथन किया गया है। रचना प्रौढ़ और गम्भीर है इसमें जैन वाङ्मय का रहस्य अन्तर्निहित है। इस कारण यह ग्रन्थ दोनों जैन परम्परा में समान रूप से मान्य है। दार्शनिक जगत में तो यह ग्रन्थ प्रसिद्ध हुआ ही है, किन्तु आध्यात्मिक जगत में इसका समादर कम नहीं है। हिन्दुओं में जिस तरह गीता का, मुसलमानों में कुरान का और ईसाईयों में बाइबिल का महत्त्व है वही महत्त्व जैनपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र को प्राप्त है।
ग्रन्थ के दस अध्यायों में से प्रथम के चार अध्यायों में जीव तत्त्व का, पांचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का, छठवें और सातवें अध्याय में आस्रव तत्त्व का, आठवें अध्याय में बन्ध तत्त्व का नवमें अध्याय में संवर और निर्जरा का और दशवें अध्याय में मोक्ष तत्त्व का वर्णन किया गया है।
तत्त्वार्थसूत्र का निम्न मंगल पद्य सूत्रकार की कृति है। इसका निर्देश आचार्य विद्यानन्द ने किया है।
श्रवणबेलगोल के २५८ वें शिलालेख में भी यही बात कही गई है उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूप रत्नों की माला प्रकट हुई उसी मुनि रत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध ओजस्वी आचार्य हुए उन्हीं के पवित्र वंश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता उमास्वामी मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे। अतएव उन्होंने मयूरपिच्छ के गिर जाने पर गृद्धपिच्छों को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गृद्धपिच्छाचार्य कहने लगे और गृद्धपिच्छाचार्य उनका उपनाम रूढ़ हो गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है। आचार्य विद्यानन्द ने भी अपने श्लोकवार्तिक में उनका उल्लेख किया है।
आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में जो वर्णन किया है वह अत्यन्त मार्मिक है। वे मुनिराज सभा के मध्य में विराजमान थे। जो बिना वचन बोले अपने शरीर से ही मानो मूर्तिधारी मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे थे। युक्ति और आगम में कुशल थे परीषहों का निरूपण करना ही जिनका एक कार्य था तथा उत्तमोत्तम आर्यपुरुषों जिनकी सेवा करते थे। ऎसे दिगम्बराचार्य गृद्धपिच्छाचार्य थे।
मैसूर प्रान्त के नगर्ताल्लुद के ४६वें शिलालेख में लिखा है - मैं तत्वार्थसूत्र के कर्ता, गुणों के मन्दिर एवं श्रुतकेवली के तुल्य श्रीउमास्वामी मुनिराज को नमस्कार करता हूँ।
तत्त्वार्थसूत्र की मूलप्रति के अन्त में प्राप्त होने वाले निम्न पद्य में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गृद्धपिच्छोपलक्षित उमास्वामी या मुनिराज की वन्दना की गई है।
इस तरह उमास्वाति आचार्य, उमास्वामी और गृद्धपिच्छाचार्य नाम से भी लोक में प्रसिद्ध रहे हैं। महाकवि पम्प (९४) ई. ने अपने आदिपुराण में उमास्वाति को आर्यनुतगृद्धपिच्छाचार्य लिखा है। इसी तरह चामुण्डराय (वि.सं. १०३५) ने अपने त्रिषष्ठिलक्षणपुराण तत्त्वार्थसूत्र कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है। आचार्य वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित में आचार्य गृद्धपिच्छ का उल्लेख किया है।
मैं उन गृद्धपिच्छ को नमस्कार करता हँ, जो महान् गुणों के आगार हैं, जो निर्वाण को उड़कर पहुँचने की इच्छा रखने वाले भव्यों के लिए पंखों का काम देते हैं। अन्य अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का गृद्धपिच्छाचार्य के रूप में उल्लेख किया है।
श्रवणबेलगोल के १०५ वें शिलालेख में लिखा है कि - आचार्य उमास्वामी ख्याति प्राप्त विद्वान थे। यतियों के अधिपति उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र प्रकट किया है, जो मोक्षमार्ग में उद्यत हुए प्रजाजनों के लिए उत्कृष्ट पाथेय का काम देता है। जिनका दूसरा नाम गृद्धपिच्छ है। उनके एक शिष्य बालक पिच्छ थे, जिनके सूक्ति रत्न मुक्त्यंगना के मोहन करने के लिए आभूषणों का काम देते हैं।
इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि उनका गृद्धपिच्छाचार्य नाम बहुत प्रसिद्ध थाआ वे जिनागम के पारगामी विद्वान थे। इसी से तत्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया।
गृद्धपिच्छाचार्य की प्रमुख रचना का नाम ‘तत्त्वार्थसूत्र’ है। प्रस्तुत ग्रन्थ दस अध्यायों में विभाजित है। इसमें जीवादि सप्ततत्त्वों का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में यह संस्कृत भाषा का एक मौलिक आद्य सूत्रग्रन्थ है। इसके पहले संस्कृत भाषा में जैन साहित्य की रचना हुई इसका कोई आधार नहीं मिलता। यह एक लघुकाय सूत्रग्रन्थ होते हुए भी उसमें प्रमेयों का बडी सुन्दरता से दथन किया गया है। रचना प्रौढ़ और गम्भीर है इसमें जैन वाङ्मय का रहस्य अन्तर्निहित है। इस कारण यह ग्रन्थ दोनों जैन परम्परा में समान रूप से मान्य है। दार्शनिक जगत में तो यह ग्रन्थ प्रसिद्ध हुआ ही है, किन्तु आध्यात्मिक जगत में इसका समादर कम नहीं है। हिन्दुओं में जिस तरह गीता का, मुसलमानों में कुरान का और ईसाईयों में बाइबिल का महत्त्व है वही महत्त्व जैनपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र को प्राप्त है।
ग्रन्थ के दस अध्यायों में से प्रथम के चार अध्यायों में जीव तत्त्व का, पांचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का, छठवें और सातवें अध्याय में आस्रव तत्त्व का, आठवें अध्याय में बन्ध तत्त्व का नवमें अध्याय में संवर और निर्जरा का और दशवें अध्याय में मोक्ष तत्त्व का वर्णन किया गया है।
तत्त्वार्थसूत्र का निम्न मंगल पद्य सूत्रकार की कृति है। इसका निर्देश आचार्य विद्यानन्द ने किया है।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये॥
इस मंगल पद्य में वही विषयवर्णित है जो तत्त्वार्थसूत्र के दस अध्यायों में चर्चित है - मोक्ष मार्ग का नेतृत्व, विश्वतत्त्व का ज्ञान और कर्म के विनाश का उल्लेख।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये॥
इस मंगल पद्य में वही विषयवर्णित है जो तत्त्वार्थसूत्र के दस अध्यायों में चर्चित है - मोक्ष मार्ग का नेतृत्व, विश्वतत्त्व का ज्ञान और कर्म के विनाश का उल्लेख।