आचार्य जोइन्दु (योगीन्दु)
जैन परम्परा में ‘जोइंदु’ या ‘योगीन्दु’ एक अध्यात्म्वेत्ता आचार्य थे। इनके जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में न तो इनके ग्रन्थों से सामग्री उपलब्ध होती है और न अन्य वाङ्मय से ही। परमात्मप्रकाश में कवि ने अपने नाम का उल्लेख किया है और अपने शिष्य का नाम भट्टप्रभाकर बताया है। पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करने के पश्चात् भट्टप्रभाकर ने जिनदेव और योगीन्दु से निर्मल परिणामों की प्राप्ति के हेतु प्रार्थना की है।
योगीन्दु योगिचन्द्र का रूपान्तर है और इनका अपभ्रंशरूप जोइंदु है। प्रायः चन्द्रान्त नामों को संक्षिप्त रूप देने के लिए ग्रन्थकार ‘इन्दु’ द्वारा अभिहित करते हैं। यथा - प्रभाचन्द्र का प्रभेन्दु, शुभचन्द्र का शुभेन्दु हो गया है। इसी प्रकार योगिचन्द्र का योगीन्दु या जोइंन्दु हुआ है। अतएव डाँ. ए. एन. उपाध्ये का यह सुझाव सर्वथा उचित है कि परमात्मप्रकाश के रचयिता का नाम योगीन्दु है।
समय-निर्णय
डाँ. ए. एन. उपाध्ये ने ‘जोइंदु’ के समय पर विस्तारपूर्वक विचार किया है। उनके निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं -
१. श्रुतसागर ने चारित्रपाहुड़ की टीका में परमात्मप्रकाश के दोहे उद्धृत किये हैं।
२. चौदहवीं और बारहवीं शताब्दी में परमात्मप्रकाश पर बालचन्द्र और ब्रह्मदेव ने क्रमशः कन्नड़ एवं संस्कृत टीकाएं लिखी हैं।
३. कुन्दकुन्द के समयसार के टीकाकार जयसेन ने १२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में समयसार टीका में परमात्मप्रकाश का एक दोहा उद्धृत किया है।
४. हेमचन्द्र ने मुनि रामसिंह के दोहे अपने अपभ्रंशव्याकरण में उद्धृत किये हैं। रामसिंह ने जोइंदु के योगसार और परमात्मप्रकाश से बहुत से दोहे ग्रहण कर अपनी रचना को समृद्ध बनाया है। अतः जोइंदु हेमचन्द्र और रामचन्द्र दोनों से पूर्ववर्ती हैं।
५. देवसेनकृत तत्त्वसार के अनेक पद्य परमात्मप्रकाश के ऋणी हैं। अतः जोइंदु देवसेन से भी पूर्ववर्ती हैं।
६. चण्ड के प्राकृतलक्षण में ‘यथा तथा अनयोः स्थाने’ के उदाहरण में निम्नलिखित दोहा प्राप्त होता है।
काल लहेविणु जोइया जिमु-जिमु मोहु गलेइ।
तिमु-तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ॥
अर्थात् जोइंदु चण्ड के पूर्ववर्ती हैं। जोइंदु का समय पूज्यपाद के पश्चात् और चण्ड के पूर्व अर्थात् छठी शती के पश्चात् और सातवीं शती के पूर्व ई. सन् की छ्ठी शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिए।
रचनाएं ः-
परम्परा से जोइंदु के नाम पर निम्नलिखित रचनाएं मानी जाती हैं -
१. परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश)
२. नौकारश्रावकाचार (अपभ्रंश)
३. योगसार (अपभ्रंश)
४. अध्यात्मरत्नसन्दोह (संस्कृत)
५. सुभाषिततंत्र (संस्कृत)
६. तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
इनके अतिरिक्त योगीन्द्र के नाम पर दोहापाहुड (अपभ्रंश). अमृताशीती (संस्कृत), स्वानुभवदर्पण और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। पर यथार्थ में परमात्मप्रकाश और योगसार दो ही ऎसी रचनाएँ हैं जो निर्भ्रान्त रूप से जोइंदु की मानी जा सकती हैं।
जोइंदु आध्यात्मवादी हैं अपभ्रंश में शुद्ध आध्यात्मविचारों की ऎसी सशक्त अभिव्यक्ति अन्यत्र नहीं मिल सकती है। इनके परमात्मप्रकाश में दो अधिकार हैं। प्रथम अधिकार में १२६ दोहे और द्वितीय में २१९ हैं। इन दोहों में क्षेपक और स्थलसंख्याबाह्यप्रक्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेव के मतानुसार परमात्मप्रकाश में समस्त ३४५ पद्य हैं। इनमें पाँच गाथाएँ नहीं हैं। एक चतुष्पदिका भी है और शेष ३७७ दोहे हैं, जो अपभ्रंश में निबद्ध हैं।
विषय-वर्णन की दृष्टि से प्रारम्भ के सात पद्यों में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। आठवें, नवें और दसवें में भट्टप्रभाकर जोइंदु से निवेदन करता है -
गउ संसारि वसंताहें सामिय कालु अणंतु।
पर मइं किं पिण पत्तु सुहु-दुक्खु जि पत्तु महंतु।।
चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि॥
हे स्वामिन्! इस संसार में रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत महान् दुःख ही पाता रहा। अतः चारों गतियों के दुखों से सन्तप्त प्राणियों के चारों गति-सम्बन्धी दुखों का विनाश करने वाले परमात्मा का स्वरूप बतलाइए। उत्तर में जोइंदु ने आत्मा के तीन भेदों का कथन किया है - १. मूढ़ २. विचक्षण ३. ब्रह्म।
जो शरीर को आत्मा मानता है, वह मूढ़ है। जो शरीर से भिन्न ज्ञानमय परमात्मा को जानता है, वह विचक्षण या पण्डित है। जिसने कर्मों का नाश कर शरीर आदि परद्रव्यों को छोड़ ज्ञानमय आत्मा को प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है। जोइंदु ने आत्मा के स्वरूप और आकार के सम्बन्ध में विभिन्न मतों का निर्देश करते हुए जैन दृष्टिकोण के सम्बन्ध में बताया है। आत्मा के सम्बन्ध में निम्नलिखित मान्यताएं प्रचलित हैं, आचार्य ने इन मान्यताओं का अनेकान्तवाद के आलोक में समन्वय किया है -
१. आत्मा सर्वगत है।
२. आत्मा शरीरप्रमाण है।
३. आत्मा शून्य है।
४. आत्मा शून्य है।
१. कर्मबन्धन से रहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोकालोक को जानती है, अतः ज्ञानापेक्षया सर्वगत है।
२. आत्मज्ञान में लीन जीव इन्द्रियजनित ज्ञान से रहित हो जाते हैं, अतः ध्यान और समाधि की अपेक्षा जड़ हैं।
३. शरीर स्र रहित हुआ शुद्ध जीव अन्तिम शरीर प्रमाण ही रहता है, न वह घटता और वह बढ़्ता हे है, अतः शरीर प्रमाण है। जिस शरीर को आत्मा धारण करती है उसी शरीर के आकार की हो जाती है, अतएव प्रदेश के संहार और प्रसरपण के कारण आत्मा शरीर प्रमाण है।
४. मोक्ष अवस्था प्राप्त करने पर शुद्ध जीव आठों कर्मों और अठारह दोषों से शून्य हो जाता है, अतः उसे शून्य कहा गया है।
वन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदि को पुण्य का कारण बतलाकर एकमात्र शुद्धभाव दो ही उपादेय बतलाया है। अतः शुद्धोपयोगी के ही संयम, शील और तप सम्भव हैं। जिसको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त है, उसी के कर्मों का क्षय होता है। अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है। चित्त की शुद्धि के बिना योगियों का तीर्थाटन करना, शिष्य-प्रशिष्यों का पालन-पोषण करना सब निरर्थक है, जो जिनलिंग धारण कर भी परिग्रह रखता है, वह वमन के भक्षण करने वाले के समान है नग्नवेष धारण कर भी भिक्षा में मिष्टान्न या स्वादिष्ट भोजन की कामना करना दोष का कारण है। आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि सर्वदा अपेक्षित है।
योगसार में १०८ दोहे हैं। वर्ण्यविषय प्रायः परमात्मप्रकाश के तुल्य ही है। इन दोहों में एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित हैं।
कुन्दकुन्द ने कर्मविमुक्त आत्मा को परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसार में भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये हैं। जोइन्दु ने भी कुन्दकुन्द की तरह दोनों ही दृष्टियाँ विशेषरूप से अपनायी हैं -
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएह।
हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ॥
श्रुतकेवलि ने कहा है कि देव न देवालय में है, न तीर्थों में। यह तो शरीर रूपी देवालय में हैं, यह निश्चय से जान लेना चाहिए। जो व्यक्ति शरीर के बाहर अन्य देवालयों में देव की तलाश करते हैं, उन्हें देखकर हँसी आती है।
जोइन्दु कवि का अपभ्रंशभाषा पर अपूर्व अधिकार है। उन्होंने अपने उक्त दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मरस का सुन्दर चित्रण किया है। ये क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रवर्तक हैं। इसी कारन उन्होंने बाह्य आडम्बर का खण्डन कर आत्मज्ञान पर जोर दिया है। कवि ने लिखा है -
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।
ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि॥
हे जीव! जिस मोह से अथवा मोह उत्पन्न करने वाली वस्तु से मन में कषायभाव उत्पन्न हों, उस मोह को अथवा मोह-निमित्तक पदार्थ को छोड़, तभी मोह-जनित कषाय के उदय से छुटकारा प्राप्त हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि पापियों का संग सब तरह से मोहकषाय को उत्पन्न करते है। इससे ही मन में कषाय रूपी अग्नि दहकती रहती है, जो इसका त्याग करता है, वही सच्ची शान्ति और सुख को पाता है।
जैन रहस्यवाद का निरूपण रहस्यवाद के रूप में सर्वप्रथम इन्हीं से आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टकेर और शिवार्य की रचनाओं में भी रहस्यवाद के तत्त्व विद्यमान हैं, पर यथार्थतः रहस्यवाद का रूप जोइन्दु की रचनाओं में ही मिलता है। वर्गसाँ ने जिस रहस्यानुभूति का स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह रहस्यानुभूति हमें इनकी रचनाओं में प्राप्त होती है - "यदि संसार के प्रति अनासक्ति पूर्ण हो जाए और वह अपने किसी भी ऎन्द्रिय प्रत्यय द्वारा किये किसी व्यापार के प्रति चिपके नहीं, तो यही एक कलाकार की आत्मा होगी, जैसा कि संसार ने पहले देखा न होगा। वह युगपत् समान रूप से प्रत्येक कला में पारंगत होगा, या यों कहें कि वह ‘सब’ को ‘एक’ में परिण्त कर लेगा। वह वस्तुमात्र को उसके सहज शुद्ध रूप में देख लेगा। परमात्मा प्रकाश के रह्स्यवाद में आत्मानुभूति सम्बन्धी विशेषता के साथ अन्य विशेषता भी पायी जाती हैं।
१. आत्मा और परमात्मा के बीच पारस्परिक अनुभूति का साक्षात्कार और दोनों के एकत्व की प्रतीति।
२. आत्म में परमात्म शक्ति का पूर्ण विश्वास।
३. ध्येय, ध्याता या ज्ञेय-ज्ञाता में एकत्व का आरोप।
४. सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता।
५. लौकिक ज्ञान के साधन इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही पूर्ण सत्य की जान लेने की क्षमता।
६. आध्यात्मवाद की रहस्यवाद के रूप में कल्पना।
७. निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टियों से भेदाभेद का विवेचन।
८. पुण्य-पाप की समता तथा दोनों को ही समान रूप से त्याज्य मानने की भावना का संयोजन।
९. अनुभूति द्वारा रसास्वाद की प्रक्रिया की स्थापना।
इस प्रकार जोइन्दु अपभ्रंश के ऎसे सर्वप्रथम कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारों के साथ आत्मिक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा कर मोक्ष का मार्ग बतलाया है।
परमात्मप्रकाश - इस ग्रन्थ में टीकाकार ब्रह्मदेव के अनुसार ३४५ पद्य हैं। दो अधिकार हैं, उनमें पांच प्राकृत गाथाएं, एक स्रग्धरा, एक मालिनी और एक चतुष्पादिका है। यद्यपि परमात्मप्रकाश में दोहे हैं। किन्तु इसका कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु योगसार, में दोहा शब्द का उल्लेख मिलता है। दोहे में दोनों पंक्तियां समान होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में दो चरण होते हैं। प्रथम चरण में १३ और दूसरे में ११ मात्रायें होती हैं। विरहांक और हेमचन्द्र के अनुसार दोहे में १४ और १२ मात्रायें होती हैं किन्तु परमात्मप्रकाश के दोहों में दीर्घ उच्चारण करने पर भी प्रथम चरण में १३ मात्राएं पायी जाती हैं और दूसरे में ११ मात्रा पायी जाती हैं।
ग्रन्थ के प्रथम अधिकार में परमेष्ठियों को नमस्कार करने के बाद आत्मा के तीन भेदों का बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का - स्वरूप बतलाया गया है। आत्मा के त्रैविध की यह चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों और पूज्यपाद देवनन्दी के ग्रन्थों से ली गई है और उनका विस्तृत स्वरूप भी दिया है। बहिरात्म अवस्था को छोड़कर अन्तरात्मा होकर परमात्मा होने की प्रेरणा की है। परमात्मा के सकल विकल भेदों का स्वरूप ३४ दोहों में दिया गया है। जीव के स्वशरीर प्रमाण होने की चर्चा, द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म, निश्चय नय, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वादि का वर्णन किया गया है।
दूसरे अधिकार में मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का फल, मोक्षमार्ग अभेद रत्नत्रय, समभाव पुण्य-पाप की समानता और परम समाधि का कथन दिया हुआ है। परमात्मप्रकाश के दोहा अत्यन्त सुन्दर रमणीय और शुद्ध स्वरूप के निरूपक हैं, उनके पढ़ने में मन रम जाता है, क्योंकि वे सरस और भावपूर्ण हैं।
जोइन्दु ने आध्यात्मिक गूढ़वाद और नैतिक उपदेशों को सहज ढ़ंग से व्यक्त किया है, उन्होंने अपने पद्यों में योगियों को अनेक बार सम्बोधित किया है और गृहनिवास को पाप का निवास भी बताया है। परमात्मप्रकाश के दोहों में गूढ़वादियों के सदृश कहीं अस्पस्टता का आभास नहीं होता। उन्होंने पंचेन्द्रियों को जीतने और विषयों से पराङ्गमुख रहने अथवा उनका त्याग कर आत्म-साधना करने का स्पष्ट संकेत किया है। मानव देह पाकर जिन्होंने जीवन को विषय कषायों में लगाया और काम-क्रोधादि विभाव भावों का परित्याग न कर वीतराग परम आनन्द रूप अमृत पाकर भी अनशनादि तप का अनुष्ठान नहीं किया, वे आत्मघाती हैं, क्योंकि ध्यान की गति महा विषय है। चित्तरूपी बन्दर के चंचल होने से शुद्धात्मा में स्थिरता प्राप्त नहीं हो सकती और ध्यान की स्थिरता के अभाव में तो कर्म कलंक का विनाश नहीं होता। तब शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है।
योगीन्दु देव जैन गूढ़वादी हैं, उनकी विशाल दृष्टि ने ग्रन्थ में विशालता प्रदान की है, अतएव उनका कथन साम्प्रदायिक व्यामोह से अलिप्त है। उनमें बौद्धिक सहन-शीलता कम नहीं है। वेदान्तियों ने आत्मा को सर्वगत माना है और मीमांसक मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं मानते। बौद्धों का कहना है कि वहाँ शून्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। योगीन्दु देव इन मरभेदों से आकुलित नहीं होते क्योंकि उन्होंने आध्यात्म के प्रकाश में नय की सहायता से शांकिक जाल का भेदन किया है और परमात्मस्वरूप की निश्चित रूपरेखा स्वीकृत की है, वह मौलिक है। वह परमात्मा को जिन, ब्रह्म, शांत, शिव और बुद्ध आदि संज्ञाएं देते हैं, उन्होंने परमात्मस्वरूप को प्रकाशित करने का यथेष्ट उद्यम किया है। अन्त में मोक्ष और मोक्ष का फल बतलाया है वस्तु के स्वरूप वर्णन में उनकी दृष्टि विमल रही है।
उनके दो चार दोहों का भी आस्वाद लीजिए वे सुन्दर भावपूर्ण और सरस हैं। जो योगी समभाव में - जीवन मरण, लाभ-अलाभ, सुख दुख, शत्रु और मित्रादि में समरूप परिणत हैं, और परम आनन्द को प्रकट करता है वही परमात्मा है।
जो जीव संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मन हुआ शुद्धात्मा का चिन्तन करता है उसकी संसार रूपी मोती बेल नाश को प्राप्त हो जाती है। हे योगी! यद्यपि आत्मा कर्मों से सम्बद्ध है और देह में रहता भी है परन्तु फिर भी वह कभी देह रूप नहीं होता, उसी को तू परमात्मा जान।
जो पुरुष परमात्मा को देह से भिन्न ज्ञानमय जानता है वही समाधि में स्थित हुआ पंडित है अन्तरात्मा और विवेकी है।
जिस शुद्ध आत्मस्वभाव में इन्द्रिय जनित सुख नहीं है और जिसमें संकल्प-विकल्प रूप मन का व्यापार नहीं है, हे जीव! तू आत्मा मान और अन्य विभावों का परित्याग कर।
इस तरह परमात्मप्रकाश के सभी दोहा आत्मस्वरूप के सम्बोधक तथा परमात्मस्वरूप के निर्देशक हैं। इनके मनन और चिन्तन से आत्मा आनन्द को प्राप्त होता है।
योगसार - इसमें १०८ दोहा हैं जिनमें आध्यात्म दृष्टि से आत्मस्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है। दोहा सरस और सरल हैं और वस्तु स्वरूप के निर्देशक हैं।
यथा -
आयु गल जाती है पर मन नहीं गलता और न आशा ही गलती है और मोह स्फुरित होता है पर आत्महित का स्फुरण नहीं होता - इस तरह जीव संसार में भ्रमण किया करता है।
संसार के सभी जीव धंधे में फंसे हुए हैं इस कारण वे अपनी आत्मा को नहीं पहचानते अतएव वे निर्वाण को नहीं पा सकते इस तरह योगसार ग्रन्थ भी आत्मसम्बोधक है। इसका अध्ययन करने से आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है।
अमृताशीति - यह एम उपदेशप्रद रचना है। इसमें विभिन्न छ्न्दों के ८२ पद्य हैं। उनमें जैन धर्म के अनेक विषयों की चर्चा की गई है। तथापि पद्यप्रभमलधारि देव ने नियमसार की टीका में योगीण्दु देव के नाम से जो पद्य उद्धृत किया है वह अमृताशीति में नहीं मिलता अतएव पं. नाथूरामजी प्रेमी का अनुमान है कि वह पद्य उनके आध्यात्म सन्दोह ग्रन्थ का होगा।
निजात्माष्टक - यह आठ पद्यात्मक एक स्तोत्र है। इसकी भाषा प्राकृ है जिनमें सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप बतलाया है। पर किसी भी पद्य में रचयिता का नाम नहीं है। ऎसी स्थिति में इसे योगीन्दु देव की रचना कैसे माना जा सकती है। इस सम्बन्ध में अन्य प्रमाणों की आवश्यकता है।
योगीन्दु योगिचन्द्र का रूपान्तर है और इनका अपभ्रंशरूप जोइंदु है। प्रायः चन्द्रान्त नामों को संक्षिप्त रूप देने के लिए ग्रन्थकार ‘इन्दु’ द्वारा अभिहित करते हैं। यथा - प्रभाचन्द्र का प्रभेन्दु, शुभचन्द्र का शुभेन्दु हो गया है। इसी प्रकार योगिचन्द्र का योगीन्दु या जोइंन्दु हुआ है। अतएव डाँ. ए. एन. उपाध्ये का यह सुझाव सर्वथा उचित है कि परमात्मप्रकाश के रचयिता का नाम योगीन्दु है।
समय-निर्णय
डाँ. ए. एन. उपाध्ये ने ‘जोइंदु’ के समय पर विस्तारपूर्वक विचार किया है। उनके निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं -
१. श्रुतसागर ने चारित्रपाहुड़ की टीका में परमात्मप्रकाश के दोहे उद्धृत किये हैं।
२. चौदहवीं और बारहवीं शताब्दी में परमात्मप्रकाश पर बालचन्द्र और ब्रह्मदेव ने क्रमशः कन्नड़ एवं संस्कृत टीकाएं लिखी हैं।
३. कुन्दकुन्द के समयसार के टीकाकार जयसेन ने १२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में समयसार टीका में परमात्मप्रकाश का एक दोहा उद्धृत किया है।
४. हेमचन्द्र ने मुनि रामसिंह के दोहे अपने अपभ्रंशव्याकरण में उद्धृत किये हैं। रामसिंह ने जोइंदु के योगसार और परमात्मप्रकाश से बहुत से दोहे ग्रहण कर अपनी रचना को समृद्ध बनाया है। अतः जोइंदु हेमचन्द्र और रामचन्द्र दोनों से पूर्ववर्ती हैं।
५. देवसेनकृत तत्त्वसार के अनेक पद्य परमात्मप्रकाश के ऋणी हैं। अतः जोइंदु देवसेन से भी पूर्ववर्ती हैं।
६. चण्ड के प्राकृतलक्षण में ‘यथा तथा अनयोः स्थाने’ के उदाहरण में निम्नलिखित दोहा प्राप्त होता है।
काल लहेविणु जोइया जिमु-जिमु मोहु गलेइ।
तिमु-तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ॥
अर्थात् जोइंदु चण्ड के पूर्ववर्ती हैं। जोइंदु का समय पूज्यपाद के पश्चात् और चण्ड के पूर्व अर्थात् छठी शती के पश्चात् और सातवीं शती के पूर्व ई. सन् की छ्ठी शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिए।
रचनाएं ः-
परम्परा से जोइंदु के नाम पर निम्नलिखित रचनाएं मानी जाती हैं -
१. परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश)
२. नौकारश्रावकाचार (अपभ्रंश)
३. योगसार (अपभ्रंश)
४. अध्यात्मरत्नसन्दोह (संस्कृत)
५. सुभाषिततंत्र (संस्कृत)
६. तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
इनके अतिरिक्त योगीन्द्र के नाम पर दोहापाहुड (अपभ्रंश). अमृताशीती (संस्कृत), स्वानुभवदर्पण और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। पर यथार्थ में परमात्मप्रकाश और योगसार दो ही ऎसी रचनाएँ हैं जो निर्भ्रान्त रूप से जोइंदु की मानी जा सकती हैं।
जोइंदु आध्यात्मवादी हैं अपभ्रंश में शुद्ध आध्यात्मविचारों की ऎसी सशक्त अभिव्यक्ति अन्यत्र नहीं मिल सकती है। इनके परमात्मप्रकाश में दो अधिकार हैं। प्रथम अधिकार में १२६ दोहे और द्वितीय में २१९ हैं। इन दोहों में क्षेपक और स्थलसंख्याबाह्यप्रक्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेव के मतानुसार परमात्मप्रकाश में समस्त ३४५ पद्य हैं। इनमें पाँच गाथाएँ नहीं हैं। एक चतुष्पदिका भी है और शेष ३७७ दोहे हैं, जो अपभ्रंश में निबद्ध हैं।
विषय-वर्णन की दृष्टि से प्रारम्भ के सात पद्यों में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। आठवें, नवें और दसवें में भट्टप्रभाकर जोइंदु से निवेदन करता है -
गउ संसारि वसंताहें सामिय कालु अणंतु।
पर मइं किं पिण पत्तु सुहु-दुक्खु जि पत्तु महंतु।।
चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि॥
हे स्वामिन्! इस संसार में रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत महान् दुःख ही पाता रहा। अतः चारों गतियों के दुखों से सन्तप्त प्राणियों के चारों गति-सम्बन्धी दुखों का विनाश करने वाले परमात्मा का स्वरूप बतलाइए। उत्तर में जोइंदु ने आत्मा के तीन भेदों का कथन किया है - १. मूढ़ २. विचक्षण ३. ब्रह्म।
जो शरीर को आत्मा मानता है, वह मूढ़ है। जो शरीर से भिन्न ज्ञानमय परमात्मा को जानता है, वह विचक्षण या पण्डित है। जिसने कर्मों का नाश कर शरीर आदि परद्रव्यों को छोड़ ज्ञानमय आत्मा को प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है। जोइंदु ने आत्मा के स्वरूप और आकार के सम्बन्ध में विभिन्न मतों का निर्देश करते हुए जैन दृष्टिकोण के सम्बन्ध में बताया है। आत्मा के सम्बन्ध में निम्नलिखित मान्यताएं प्रचलित हैं, आचार्य ने इन मान्यताओं का अनेकान्तवाद के आलोक में समन्वय किया है -
१. आत्मा सर्वगत है।
२. आत्मा शरीरप्रमाण है।
३. आत्मा शून्य है।
४. आत्मा शून्य है।
१. कर्मबन्धन से रहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोकालोक को जानती है, अतः ज्ञानापेक्षया सर्वगत है।
२. आत्मज्ञान में लीन जीव इन्द्रियजनित ज्ञान से रहित हो जाते हैं, अतः ध्यान और समाधि की अपेक्षा जड़ हैं।
३. शरीर स्र रहित हुआ शुद्ध जीव अन्तिम शरीर प्रमाण ही रहता है, न वह घटता और वह बढ़्ता हे है, अतः शरीर प्रमाण है। जिस शरीर को आत्मा धारण करती है उसी शरीर के आकार की हो जाती है, अतएव प्रदेश के संहार और प्रसरपण के कारण आत्मा शरीर प्रमाण है।
४. मोक्ष अवस्था प्राप्त करने पर शुद्ध जीव आठों कर्मों और अठारह दोषों से शून्य हो जाता है, अतः उसे शून्य कहा गया है।
वन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदि को पुण्य का कारण बतलाकर एकमात्र शुद्धभाव दो ही उपादेय बतलाया है। अतः शुद्धोपयोगी के ही संयम, शील और तप सम्भव हैं। जिसको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त है, उसी के कर्मों का क्षय होता है। अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है। चित्त की शुद्धि के बिना योगियों का तीर्थाटन करना, शिष्य-प्रशिष्यों का पालन-पोषण करना सब निरर्थक है, जो जिनलिंग धारण कर भी परिग्रह रखता है, वह वमन के भक्षण करने वाले के समान है नग्नवेष धारण कर भी भिक्षा में मिष्टान्न या स्वादिष्ट भोजन की कामना करना दोष का कारण है। आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि सर्वदा अपेक्षित है।
योगसार में १०८ दोहे हैं। वर्ण्यविषय प्रायः परमात्मप्रकाश के तुल्य ही है। इन दोहों में एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित हैं।
कुन्दकुन्द ने कर्मविमुक्त आत्मा को परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसार में भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये हैं। जोइन्दु ने भी कुन्दकुन्द की तरह दोनों ही दृष्टियाँ विशेषरूप से अपनायी हैं -
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएह।
हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ॥
श्रुतकेवलि ने कहा है कि देव न देवालय में है, न तीर्थों में। यह तो शरीर रूपी देवालय में हैं, यह निश्चय से जान लेना चाहिए। जो व्यक्ति शरीर के बाहर अन्य देवालयों में देव की तलाश करते हैं, उन्हें देखकर हँसी आती है।
जोइन्दु कवि का अपभ्रंशभाषा पर अपूर्व अधिकार है। उन्होंने अपने उक्त दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मरस का सुन्दर चित्रण किया है। ये क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रवर्तक हैं। इसी कारन उन्होंने बाह्य आडम्बर का खण्डन कर आत्मज्ञान पर जोर दिया है। कवि ने लिखा है -
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।
ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि॥
हे जीव! जिस मोह से अथवा मोह उत्पन्न करने वाली वस्तु से मन में कषायभाव उत्पन्न हों, उस मोह को अथवा मोह-निमित्तक पदार्थ को छोड़, तभी मोह-जनित कषाय के उदय से छुटकारा प्राप्त हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि पापियों का संग सब तरह से मोहकषाय को उत्पन्न करते है। इससे ही मन में कषाय रूपी अग्नि दहकती रहती है, जो इसका त्याग करता है, वही सच्ची शान्ति और सुख को पाता है।
जैन रहस्यवाद का निरूपण रहस्यवाद के रूप में सर्वप्रथम इन्हीं से आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टकेर और शिवार्य की रचनाओं में भी रहस्यवाद के तत्त्व विद्यमान हैं, पर यथार्थतः रहस्यवाद का रूप जोइन्दु की रचनाओं में ही मिलता है। वर्गसाँ ने जिस रहस्यानुभूति का स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह रहस्यानुभूति हमें इनकी रचनाओं में प्राप्त होती है - "यदि संसार के प्रति अनासक्ति पूर्ण हो जाए और वह अपने किसी भी ऎन्द्रिय प्रत्यय द्वारा किये किसी व्यापार के प्रति चिपके नहीं, तो यही एक कलाकार की आत्मा होगी, जैसा कि संसार ने पहले देखा न होगा। वह युगपत् समान रूप से प्रत्येक कला में पारंगत होगा, या यों कहें कि वह ‘सब’ को ‘एक’ में परिण्त कर लेगा। वह वस्तुमात्र को उसके सहज शुद्ध रूप में देख लेगा। परमात्मा प्रकाश के रह्स्यवाद में आत्मानुभूति सम्बन्धी विशेषता के साथ अन्य विशेषता भी पायी जाती हैं।
१. आत्मा और परमात्मा के बीच पारस्परिक अनुभूति का साक्षात्कार और दोनों के एकत्व की प्रतीति।
२. आत्म में परमात्म शक्ति का पूर्ण विश्वास।
३. ध्येय, ध्याता या ज्ञेय-ज्ञाता में एकत्व का आरोप।
४. सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता।
५. लौकिक ज्ञान के साधन इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही पूर्ण सत्य की जान लेने की क्षमता।
६. आध्यात्मवाद की रहस्यवाद के रूप में कल्पना।
७. निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टियों से भेदाभेद का विवेचन।
८. पुण्य-पाप की समता तथा दोनों को ही समान रूप से त्याज्य मानने की भावना का संयोजन।
९. अनुभूति द्वारा रसास्वाद की प्रक्रिया की स्थापना।
इस प्रकार जोइन्दु अपभ्रंश के ऎसे सर्वप्रथम कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारों के साथ आत्मिक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा कर मोक्ष का मार्ग बतलाया है।
परमात्मप्रकाश - इस ग्रन्थ में टीकाकार ब्रह्मदेव के अनुसार ३४५ पद्य हैं। दो अधिकार हैं, उनमें पांच प्राकृत गाथाएं, एक स्रग्धरा, एक मालिनी और एक चतुष्पादिका है। यद्यपि परमात्मप्रकाश में दोहे हैं। किन्तु इसका कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु योगसार, में दोहा शब्द का उल्लेख मिलता है। दोहे में दोनों पंक्तियां समान होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में दो चरण होते हैं। प्रथम चरण में १३ और दूसरे में ११ मात्रायें होती हैं। विरहांक और हेमचन्द्र के अनुसार दोहे में १४ और १२ मात्रायें होती हैं किन्तु परमात्मप्रकाश के दोहों में दीर्घ उच्चारण करने पर भी प्रथम चरण में १३ मात्राएं पायी जाती हैं और दूसरे में ११ मात्रा पायी जाती हैं।
ग्रन्थ के प्रथम अधिकार में परमेष्ठियों को नमस्कार करने के बाद आत्मा के तीन भेदों का बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का - स्वरूप बतलाया गया है। आत्मा के त्रैविध की यह चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों और पूज्यपाद देवनन्दी के ग्रन्थों से ली गई है और उनका विस्तृत स्वरूप भी दिया है। बहिरात्म अवस्था को छोड़कर अन्तरात्मा होकर परमात्मा होने की प्रेरणा की है। परमात्मा के सकल विकल भेदों का स्वरूप ३४ दोहों में दिया गया है। जीव के स्वशरीर प्रमाण होने की चर्चा, द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म, निश्चय नय, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वादि का वर्णन किया गया है।
दूसरे अधिकार में मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का फल, मोक्षमार्ग अभेद रत्नत्रय, समभाव पुण्य-पाप की समानता और परम समाधि का कथन दिया हुआ है। परमात्मप्रकाश के दोहा अत्यन्त सुन्दर रमणीय और शुद्ध स्वरूप के निरूपक हैं, उनके पढ़ने में मन रम जाता है, क्योंकि वे सरस और भावपूर्ण हैं।
जोइन्दु ने आध्यात्मिक गूढ़वाद और नैतिक उपदेशों को सहज ढ़ंग से व्यक्त किया है, उन्होंने अपने पद्यों में योगियों को अनेक बार सम्बोधित किया है और गृहनिवास को पाप का निवास भी बताया है। परमात्मप्रकाश के दोहों में गूढ़वादियों के सदृश कहीं अस्पस्टता का आभास नहीं होता। उन्होंने पंचेन्द्रियों को जीतने और विषयों से पराङ्गमुख रहने अथवा उनका त्याग कर आत्म-साधना करने का स्पष्ट संकेत किया है। मानव देह पाकर जिन्होंने जीवन को विषय कषायों में लगाया और काम-क्रोधादि विभाव भावों का परित्याग न कर वीतराग परम आनन्द रूप अमृत पाकर भी अनशनादि तप का अनुष्ठान नहीं किया, वे आत्मघाती हैं, क्योंकि ध्यान की गति महा विषय है। चित्तरूपी बन्दर के चंचल होने से शुद्धात्मा में स्थिरता प्राप्त नहीं हो सकती और ध्यान की स्थिरता के अभाव में तो कर्म कलंक का विनाश नहीं होता। तब शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है।
योगीन्दु देव जैन गूढ़वादी हैं, उनकी विशाल दृष्टि ने ग्रन्थ में विशालता प्रदान की है, अतएव उनका कथन साम्प्रदायिक व्यामोह से अलिप्त है। उनमें बौद्धिक सहन-शीलता कम नहीं है। वेदान्तियों ने आत्मा को सर्वगत माना है और मीमांसक मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं मानते। बौद्धों का कहना है कि वहाँ शून्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। योगीन्दु देव इन मरभेदों से आकुलित नहीं होते क्योंकि उन्होंने आध्यात्म के प्रकाश में नय की सहायता से शांकिक जाल का भेदन किया है और परमात्मस्वरूप की निश्चित रूपरेखा स्वीकृत की है, वह मौलिक है। वह परमात्मा को जिन, ब्रह्म, शांत, शिव और बुद्ध आदि संज्ञाएं देते हैं, उन्होंने परमात्मस्वरूप को प्रकाशित करने का यथेष्ट उद्यम किया है। अन्त में मोक्ष और मोक्ष का फल बतलाया है वस्तु के स्वरूप वर्णन में उनकी दृष्टि विमल रही है।
उनके दो चार दोहों का भी आस्वाद लीजिए वे सुन्दर भावपूर्ण और सरस हैं। जो योगी समभाव में - जीवन मरण, लाभ-अलाभ, सुख दुख, शत्रु और मित्रादि में समरूप परिणत हैं, और परम आनन्द को प्रकट करता है वही परमात्मा है।
जो जीव संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मन हुआ शुद्धात्मा का चिन्तन करता है उसकी संसार रूपी मोती बेल नाश को प्राप्त हो जाती है। हे योगी! यद्यपि आत्मा कर्मों से सम्बद्ध है और देह में रहता भी है परन्तु फिर भी वह कभी देह रूप नहीं होता, उसी को तू परमात्मा जान।
जो पुरुष परमात्मा को देह से भिन्न ज्ञानमय जानता है वही समाधि में स्थित हुआ पंडित है अन्तरात्मा और विवेकी है।
जिस शुद्ध आत्मस्वभाव में इन्द्रिय जनित सुख नहीं है और जिसमें संकल्प-विकल्प रूप मन का व्यापार नहीं है, हे जीव! तू आत्मा मान और अन्य विभावों का परित्याग कर।
इस तरह परमात्मप्रकाश के सभी दोहा आत्मस्वरूप के सम्बोधक तथा परमात्मस्वरूप के निर्देशक हैं। इनके मनन और चिन्तन से आत्मा आनन्द को प्राप्त होता है।
योगसार - इसमें १०८ दोहा हैं जिनमें आध्यात्म दृष्टि से आत्मस्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है। दोहा सरस और सरल हैं और वस्तु स्वरूप के निर्देशक हैं।
यथा -
आयु गल जाती है पर मन नहीं गलता और न आशा ही गलती है और मोह स्फुरित होता है पर आत्महित का स्फुरण नहीं होता - इस तरह जीव संसार में भ्रमण किया करता है।
संसार के सभी जीव धंधे में फंसे हुए हैं इस कारण वे अपनी आत्मा को नहीं पहचानते अतएव वे निर्वाण को नहीं पा सकते इस तरह योगसार ग्रन्थ भी आत्मसम्बोधक है। इसका अध्ययन करने से आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है।
अमृताशीति - यह एम उपदेशप्रद रचना है। इसमें विभिन्न छ्न्दों के ८२ पद्य हैं। उनमें जैन धर्म के अनेक विषयों की चर्चा की गई है। तथापि पद्यप्रभमलधारि देव ने नियमसार की टीका में योगीण्दु देव के नाम से जो पद्य उद्धृत किया है वह अमृताशीति में नहीं मिलता अतएव पं. नाथूरामजी प्रेमी का अनुमान है कि वह पद्य उनके आध्यात्म सन्दोह ग्रन्थ का होगा।
निजात्माष्टक - यह आठ पद्यात्मक एक स्तोत्र है। इसकी भाषा प्राकृ है जिनमें सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप बतलाया है। पर किसी भी पद्य में रचयिता का नाम नहीं है। ऎसी स्थिति में इसे योगीन्दु देव की रचना कैसे माना जा सकती है। इस सम्बन्ध में अन्य प्रमाणों की आवश्यकता है।