Quotes on Jainism
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"संसार में मनुष्यॊ की प्रवृत्ति स्वेच्छानुसार होती है और वे अन्य को अपने रूप परिणमाना चाहते हैं जब कि वे परिणमते नहीं। इस दशा में महा दुःख के पात्र होते हैं। मनुष्य यदि यह मानना छोङ देवे कि पदार्थ का परिणमन हम अपने अनुकूल कर सकते हैं तो दुःखी होने की कुछ भी बात ना रहे।"
मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० १ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji
आचार्य वर्धमान सागर जी: (link to source)
आचार्य विद्यासागर महाराज जी: (link to more quotes )
आचार्य विद्यासागर जी द्वारा हाइकु छन्द:
1. अपना मन
अपने विषय में
क्यों न सोचता।
अर्थ: मन अपना होते हुए भी हमेशा दूसरो के विषय में ही सोचता है अपने विषय में कभी भी नहीं।
2. जगत रहा
पुण्य पाप का खेत
बोया सो पाया
अर्थ: यह जगत पुण्य पाप के खेत की तरह है। इस खेत में जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
3. गुरू की चर्या देख
भावना होती
हम भी पावें।
अर्थ: गुरू की श्रेष्ठ चर्या को देखकर हमें भी उनके जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है।
4. मौन के बिना
मुक्ति संभव नहीं
मन बना ले।
अर्थ: मौन के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है इसलिये मौन धारण करने के बारे में सोचे।
5. डाट के बिना
शिष्य और शीशी का
भविष्य ही क्या।
अर्थ: शिष्य को यदि डाट न पङे और शीशी को यदि डाट न लगाया जाये तो दोनो का भविष्य खतरे में होता है।
6. गुरू ने मुझे
क्या न दिया हाथ में
दिया दे दिया।
अर्थ: गुरू ने हाथ में दीपक थमाकर मानों मुझे सब कुछ दे दिया।
7. जितना चाहा
जो चाहा जब चाहा
क्या कभी मिला।
अर्थ: इन्सान जितना चाहता है उतना, जो चाहता है वह, और जब चाहता है तब क्या उसे मिल पाता है? नहीं।
8. मन की बात
नहीं सुनना होती
मोक्षमार्ग में।
अर्थ: मोक्षमार्ग में मन की बात सुनना अहितकर हो सकता है।
9. असमर्थन
विरोध सा लगता
विरोध नहीं।
अर्थ: किसी बात का समर्थन न करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका विरोध किया जा रहा है, परन्तु वह विरोध नहीं होता।
10. मोक्षमार्ग में
समिति समतल
गुप्ति सीढ़ियां।
अर्थ: मोक्षमार्ग में समितियां का पालन समतल पर चलने की तरह होता है जबकि गुप्तियों का पालन सीढियां चढ़ने की तरह।
11. स्वानुभूति ही
श्रमण का लक्ष्य हो
अन्यथा भूसा।
अर्थ: आत्मा की अनुभूति ही श्रमण का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा न होने पर सब कुछ व्यर्थ है।
12. प्रकृति में जो
रहता है वह सदा
स्वस्थ रहता।
अर्थ: प्रकृति में जीने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता।
13. तेरी दो आंखे
तेरी ओर हजार
सतर्क हो जा।
अर्थ: दूसरों को देखेने के लिये हमारे पास केवल दो आंखे हैं। लेकिन हमारी ओर उठने वाली आंख हजारों हैं इसलिये एक एक कदम फ़ूंक फ़ूंक कर रखना चाहिये।
14. पौंधे न रोपें
और छाया चाहते
पौरूष्य नहीं।
अर्थ: मानव वृक्षारोपण तो करता नहीं और छांव चाहता है। यह तो पौरूष नहीं।
15. मान शत्रु है
कछुआ बनूं बचूं
खरगोश से।
अर्थ: मान शत्रु है, कछुआ की तरह निरहंकारी बन अपने पथ पर चलता रहूं न कि अहंकारी खरगोश की तरह जीवन में पराजय को प्राप्त होऊं।
16. मैं क्या जानता
क्या क्या न जानता सो
गुरूजी जानें।
अर्थ: मैं क्या जानता हूं और क्या नहीं, यह तो गुरू ही जानें।
17. मान चाहूं न
पै अपमान अभी
सहा न जाता।
अर्थ: मान सबको अच्छा लगता है। अपमान कोई नहीं सह पाता।
18. बिना प्रमाद
’श्वसन क्रिया सम’
पथ पे चलूं।
अर्थ: जैसे श्वास बिना रूके निरन्तर चलती रहती है उसी प्रकार मैं भी अपने पथ पर निरन्तर चलता रहूं।
19. जिन बोध में
’लोकालोक तैरते’
उन्हे नमन।
अर्थ: जिनेन्द्र देव के ज्ञान में लोकलोक झलकते हैं उन्हे हमारा नमस्कार हो।
20. उजाले में हैं
“उजाला करते हैं”
गुरू को बन्दूं।
अर्थ: जो स्वयं प्रकाशित हैं और सबको प्रकाश दिखाते हैं ऐसे गुरू को वन्दन करते हैं।
21. साधना छोङ
’कायरत होना ही’
कायरता है।
अर्थ: साधना से विमुख होकर शरीर से ममत्व करना कायरता है।
22. बिना रस भी
पेट भरता छोङो
मन के लड्डू।
अर्थ: इन्द्रियों के वशीभूत होकर रसों का सेवन करना बंद करो क्योंकि पेट भरने के लिये नीरस भोजन भी पर्याप्त हैं।
23. संघर्ष में भी
’चंदन सम सदा’
सुगन्धि बांटू।
अर्थ: भले ही मुझे कष्ट झेलने पङे परन्तु मैं चन्दन की तरह सबको खुशबू प्रदान करता रहूं।
24. पाषाण भीगे
’वर्षा में, हमारी भी’
यही दशा।
अर्थ: वर्षा में भीगे हुये पाषाण की तरह हमारी दशा है जिसका असर बहुत शीघ्र समाप्त हो जाता है।
25. आप में न हो
’तभी तो अस्वस्थ हो’
अब तो आओ।
अर्थ: अपने आप में नहीं रहने वाला अस्वस्थ रहता है। इसलिये अब अपने में आ जाओ।
26. घनी निशा में
’माथा भयभीत हो’
आस्था आस्था है।
अर्थ: संकट के समय यदि घबरा गये तो समझो आस्था कमजोर है।
27. मलाई कहां
अशांत दूध में सो
प्रशांत बनो।
अर्थ: अशांत दूध में मलाई नहीं होती, इसलिये शान्त बनों।
28. खाल मिली थी
यही मिट्टी में मिली
खाली जाता हूं।
अर्थ: चर्म का यह तन मिला था यह भी अन्ततः मिट्टी में मिल गया। खाली हाथ जाना होगा।
29. आगे बनूंगा
अभी प्रभु पदों में
बैठ तो जाऊं
अर्थ: पहले भगवान के चरणों में बैठना होगा, तभी भगवान बनना सम्भव है।
30. अपने मन,
को टटोले बिना ही
सब व्यर्थ है।
अर्थ: अपने मन को टटोलते रहना चाहिये अन्यथा सब व्यर्थ है।
31. देखो ध्यान में
कोलाहल मन का
नींद ले रहा।
अर्थ: ध्यान में मन का शोर समाप्त हो जाता है।
32. द्वेष से राग,
जहरीला है जैसे
शूल से फ़ूल।
अर्थ: द्वेष की अपेक्षा राग ज्यादा हानिकारक है, जैसे फ़ूल की अपेक्षा कांटा ज्यादा खतरनाक होता है।
33. छाया सी लक्ष्मी,
अनुचरा हो यदि
उसे न देखो।
अर्थ: यदि लक्ष्मी की तरफ़ ध्यान न दो वह दासी की तरह साथ देती है।
34. कैदी हूं देह
जेल में जेलर ना
तो भी भागा ना।
अर्थ: देह रूपी जेल में आत्मा कैद है। उस जेल में जेलर नहीं है फ़िर भी इसने भागने की कोशिश नहीं की। कारण इसे उस कैद में ही रस आने लगा है।
35. निजी पराये,
बच्चों को दुग्ध-पान
कराती गौ मां।
अर्थ: अपने पराये का भेद भुलाकर गौ माता सबको दुग्धपान करती है।
36. ज्ञानी कहता,
जब बोलूं अपना
स्वाद टूटता।
अर्थ: ज्ञानी कहता है कि जब भी मैं बोलता हूं बाहर आ जाता हूं और आत्मा के सुख से वंचित रह जाता हूं।
37. समानान्तर,
दो रेखाओं में मैत्री
पल सकती।
अर्थ: मैत्री समान लोगों की ही होती है। जैसे कि दो समानान्तर रेखायें अन्त तक साथ चलती है।
38. वक्ता व श्रोता
बने बिना गूंगा सा
स्व का स्वाद ले।
अर्थ: आत्मा का रस लेने के लिये मूक बनना होगा। न वक्ता और न ही श्रोता।
39. परिचित भी,
अपरिचित लगे
स्वस्थ ज्ञान में।
अर्थ: आत्मस्थ दशा में परिचित व्यक्ति भी, वास्तविकता का बोध हो जाने से अपरिचित ही लगना चाहिये।
40. नौ मास उल्टा
लटका आज तप
कष्टकर क्यों।
अर्थ: नव मास तक मां के पेट में उल्टा लटकता रहा फ़िर भी आज तप करने से डरता है।
41. कहो न सहो
सही परीक्षा यही
आपे में रहो।
अर्थ: कहो मत बल्कि सहो। सही परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आप में रहने पर होती है।
ब्रहमचारी अन्नु भैया की डायरी से:
अपने जीवन को सुखी कैसे बनाये:
सच्चे देव शास्त्र और गुरू की विनय में कभी कमी ना आये।
साधु की उपेक्षा ना करें।
अपनी फ़ोटो के प्रकाशन की भावना न आयें।
अर्थोपार्जन के नये तरीके ना खोजे।
हटाग्रह या विरोध ना करें।
अधिक क्रोध ना करें।
पक्षपात पूर्ण वृत्ति ना हो।
समाज के बीच रहकर अधिक सम्बन्ध ना बनायें।
प्रदर्शन की भावना ना रखें।
प्रतिस्पर्धा से बचे।
निन्दा से बचे।
अपनी संस्कृति की रक्षा करें
रात्रि भोजन एवं रात्रि विवाह बन्द करें।
दहेज प्रथा का विरोध करें।
भ्रूण हत्या का खुलकर विरोध करें।
अण्डा शाकाहारी नहीं हो सकता इसका खुलकर विरोध करें।
नशीले पदार्थ का प्रयोग बन्द करें
हिंसक सौन्दर्य प्रसाधन व चमङे की वस्तुओं का प्रयोग न करें।
पर्यावरण बचायें, जंगल उजङने ना दे, वृक्षो से प्यार करें।
प्लास्टिक पोलीथिन का प्रयोग कम से कम करें।
गौशालाओं को दान करें, नई गोशालायें खुलवायें।
Television का प्रहेज करें।
घरों में वृद्धों की सेवा करना ना भूलें।
स्कूल कालिजो में शाकाहार साहित्य वितरित करेम।
भङकीले कपङे, पारदर्शी कपङे अपनी जबान बेटियों को ना पहननें दें।
स्वर्णिम सूत्र:
घर को स्वच्छ और सुन्दर रखियें। घर की छोटी-बङी सब वस्तुएं निर्धारित स्थान पर रखियें।
घर के काम काज में सहयोग कीजिये, खाने की वस्तुएं पहले पहले छोटों को दीजिये।
घर आये अतिथि को प्रसन्न ह्रदय से सत्कार कीजिये, लौटते समय दरवाजे तक पहुंचकर विदा कीजिये।
घर में शान्ति बनायें रखने के लिये स्वयं शान्त रहिये, अशान्ति का वातावरण बन जाने पर घर के सदस्यों को प्रेमपूर्वक समझाइये।
घर की गोपनीय बातों को उजागर मत कीजिये, दूसरो की गुप्त बातों को जानने का प्रयत्न न कीजिये।
सबके साथ नम्रता और मधुरता पूर्वक पेश आइये, निन्दा, व्यंग की भाषा का उपयोग करने में परहेज रखिये।
कही हुई बात को वचन समझिये, उसे पूरा करने की कोशिश कीजिये।
क्रोध के क्षणों में जवाब मत दीजिये, औरो की भूलों को क्षमा करने की सामर्थ्य रखिये।
असहाय और विपदाग्रस्त लोगों की सहायता कीजिये; स्वयं पर कष्ट आ जाये तो धैर्य और साहस से सामना कीजिये।
बङो के सम्मान का ध्यान रखियें, उनकी मान मर्यादा को निभाने की कोशिश कीजिये।
कर्मचारियों के साथ इस तरह पेश आइये कि वें आप पर सदा गौरव कर सकें।
व्यसनों से ग्रस्त होकर औरों के दुःख दर्द का कारण न बनियें, व्यसन मुक्त स्वस्थ समाज की संरचना में सहयोग कीजिये।
जिन्दगी होगी सफ़ल:
धैर्य सबसे बङा गुण है। यदि इंसान को धैर्य रखना आ जाये, तो वह सुखी हो जाये।
यदि आपने आगे बङने का प्रण कर लिया है, तो चुनौतियों को स्वीकारें।
किसी कार्य को बीच में ना छोङे, क्योंकि हर कार्य हमारे अगले कार्य में हमारे हौसले को मजबूत करता है।
आप कहां गलत हैं या थे उस कमी को देंखे, सुधारे और पुनः करने से बचे।
अपने आसपास एक सकारात्मक वातावारण का निर्माण करें तथा ऐसे ही लोगो की संगत करें जिनकी सोच सकारात्मक और आशावादी हो।
परवरिश:
बच्चो की प्रथम पाठशाला उसका घर होता है और प्रथम शीक्षिका मां होती है, अतः मां को विशेष ध्यान रखना चाहिये। बच्चों के सामने सभ्यता से बोलें और अच्छा आचरण करें। आप जैसा आचरण करेंगे वैसा ही बच्चा सीखेगा।
बच्चो की सभी बातों में मीनमेक ना निकाले और न ही बात-बात में उसे रोके-टोके। बच्चो को प्यार से समझायें। उसके दोस्तो के सामने उसे डांटे नहीं।
आपका बच्चा जब कोई अच्छा काम करें तो उसकी प्रशंसा करना ना भूलें। माता-पिता की प्रशंसा बच्चो के अन्दर आत्मविश्वास जगाती है और भविष्य में वो और भी अच्छा perform करता है।
कभी-कभी बच्चो की जिद भी मान लें। जिद करना तो बाल-सुलभ स्वभाव है। थोङी समझदारी से उसके इस स्वभाव को हैंडिल करें, तो उसकी यह आदत धीरे-धीरे कम हो जायेगी।
दूसरे बच्चों से अपने बच्चो की तुलना ना करें।
अपने बच्चो में ईर्ष्या- द्वेष की भावना ना पनपनें दे।
बच्चो को जिम्मेदार व अनुशासित बनाने से पहले स्वयं अनुशासित व जिम्मेदार बनें।
बच्चों में शुरू से ही sharing की आदत डाले। उसे अपने खिलौने या chocolate अपने दोस्तो या भाई बहनो के साथ मिल-बांटकर खेलना-खाना सिखायें। इस तरह वो बचपन से ही social होना सीखेगा।
बच्चो से अधिक अपेक्षायें ना करे। अक्सर parents अपनी अधूरी महत्वकांक्षा बच्चो के जरिए पूरा करना चाहते हैं और इसके लिए वो बच्चो पर दबाव डालते हैं, जो सही नहीं है।
बच्चो को अनुशासन सिखायें, लेकिन उन्हे अनुशासन के दायरे में बांध कर ना रखें। अनुशासन के दायरे में बांधकर रखने से बच्चो का समुचित विकास नहीं हो पाता।
नम्रता, दया, परोपकार, दूसरों से प्रेम, बङो का आदर, सत्य बोलना इन बातों को बचपन से बच्चो को सिखाने का प्रयास आरंभ करें। मिथ्या अभिमान से उन्हे बचाने का भरसक प्रयास करें\
सत्य और सत्ता:
जो दूसरो को सता-सता कर मिले वह सत्ता है और जो स्वयं को तपा-तपाकर मिले वह सत्य है। सत्ता के लिये दूसरो को मिटाना पङता है, जबकि सत्य के लिये स्वयं को मिटना पङता है। सत्ता शाश्वत नहीं, सत्य शाश्वत है।
अपने व्यक्तित्व को कैसे संभारे:
अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें।
दूसरो के लिये भी सोचे।
सबका भला हो, सदा ऐसा सोचे।
अपने व्यक्तित्व को कैसे संभारे:
मुस्करायें और दयालु बनें।
अच्छे श्रोता बनें।
अपने आप को दूसरे के स्थान पर रखकर देखें।
जीवन में हमेशा उत्साह बना के रखें।
जब हम कोई गल्ती करते हैं उसे तुरन्त खुशी से स्वीकार करें।
जब दूसरे लोग अपनी गल्ती का एहसास करके उसे स्वीकार करें, तो उसे धन्यवाद दें।
किसी से तर्क तो करें तकरार नहीं।
एहसान तो माने, लेकिन एहसान मंदी की उम्मीद ना करें।
भरोसे बन्द बनें और वफ़ादारी निभानी का प्रयास करें।
दूसरे को समझने और ख्याल रखने वाले बनें।
सीधा उपदेश देने की अपेक्षा प्रश्न कीजिये।
अतिथी के पीछे चलें आगे नहीं।
दुनिया में दूसरों को सुधारना सबसे जटिल काम है। लेकिन जो जैसा है, आप उसे उपनाकर खुद को बदलने की ताकत दे सकते हैं।
गुरूजन के साथ शिष्टाचार:
गुरू के सम्मान में कभी कमी नहीं आनी चाहिये।
गुरू की जैसे भी बनें सेवा करनी चाहिये।
गुरू के वचनो को कभी भूलना चाहिये।
गुरू के आने पर खङा हो जान चाहिये।
गुरू के आसन पर नहीं बैठना चाहिये।
गुरू के बैठने के बाद ही बैठना चाहिये।
गुरू के साथ विवाद नहीं करना चाहिये।
गुरू के अनुकूल वचन बोलने चाहिये।
गुरू से तीन हाथ दूर बैठना चाहिये।
चलते समय पैर छूकर वंदना नहीं करनी चाहिये।
गुरू की बराबरी से नहीं चलना चाहिये, अपितु बाईं तरफ़ एक कदम पीछे चलना चाहिये।
गुरूओं की कमी, दोष या गल्ती देखकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिये, अपितु एकान्त में उन्हे परोक्ष रूप से संकेत देना चाहिये।
गुरू के आदेशो का तत्परता से पालन करना चाहिये।
गुरू से कुछ भी बात मत छुपाओ।
सहपाठी के साथ शिष्टाचार
संकट के समय में भी दोस्त का साथ देना चाहिये।
साथी के सुधार की भावना रखनी चाहिये पर नीचे दिखाने की भावना कभी नहीं रखनी चाहिये।
सहपाठी से मिलते-बिछुङते समय मुस्कुराना ना भूलें।
सहपाठी के साथ छोटी-छोटी बातों पर विवाद ना करें।
असमान बिन्दुओं पर कम चर्चा करें।
सहपाठी की गल्तियों का समर्थन न करें, अपितु उन्हे बर्दाश्त करते हुए सुधारने का प्रयास अवश्य करें।
तेरह पंथ और बीस पंथ:
तेरह पंथ और बीस पंथ के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे। आचार्य श्री जी से 1989 में पनागर में जब यह प्रश्न किया गया, तो आचार्य श्री जी ने कहा पंथ भेद के नाम पर समाज बहुत बट गया है। अपने को तटस्थ रहना है जहां जैसी परम्परा चल रही है चलने दो, हां इतना ध्यान रखना कोई भी क्रिया का निषेध नहीं है क्रिया में अतिरेक और अविवेक नहीं होना चाहिये। नहीं तो सम्यक्त्व की असाधना होती है।
सामान्य शिष्टाचार:
व्यर्थ ही पेङो के पत्ते, फ़ल, फ़ूल नहीं तोङने चाहिये।
वस्तुओं को यथास्थान रखना चाहिये।
व्यर्थ में लाइट, पंखा, नल, गैस आदि खुले नहीं छोङना चाहिये।
बिना आवाज किये दरवाजा खोलना व बन्द करना चाहिये।
दूसरों की गुप्त वार्ता सुननी नहीं चाहिये।
किसी का बुरा नहीं विचारना चाहिये।
प्राप्त वस्तुओं में सन्तोष रखना चाहिये।
अभाव या गरिबी में दीनता नहीं लानी चाहिये।
संकट में धैर्य रखना चाहिये।
कठिनाइयों में साहस नहीं खोना चाहिये।
घर आये शत्रु का भी सम्मान करना चाहिये।
सब से घुल-मिल कर रहना चाहिये।
बुरे लोगो की संगति नहीं करनी चाहिये।
दूसरो की वस्तुओं को लालच की दृष्टि से ना देखें।
सत्पात्र दान व पूजा से जी नहीं चुराना चाहिये।
लोक विरूद्ध कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये।
चलते समय दीवार पर हाथ नहीं फ़ेरना चाहिये।
अपने से बङो के आगे नहीं चले।
पीछे आकर आगे नहीं बैठना चाहिये।
खान पान पहनावा व आचार विचार में सादगी रखें।
उत्तेजक, अश्लील, साहित्य, संगीत व फ़िल्मों से दूर रहें।
दूसरों के दोष नहीं गुण देखना चाहिये।
आमदनी से खर्चा अधिक नहीं करना चाहिये।
शिष्टाचार:
शिष्टाचार के प्रमुख दो सिद्धान्त हैं। प्रथमतः अपना नम्र मृदु व्यवहार, दूसरा औरों का सम्मान की समुचित रक्षा। उद्दंडता, असभ्यता का जरा सा भी व्यवहार हमें शिष्टाचार से कोंसों दूर खङा कर देता है। प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, प्रमाद, उतावलापन, अहंकार, निष्ठुरता, कृतघ्नता शिष्टाचार के सबसे बङे दुश्मन हैं शत्रु हैं।
शील की नौ बाङ:
१) स्त्री राग वर्धक कथा ना सुनना
२) स्त्रियों के मनोहर अंगो को न देखना।
३) पहले भोगे हुए भोगो को याद ना करना।
४) गरिष्ट व स्वादिष्ट भोजन न करना।
५) अपने शरीर को श्रंगारित न करना
६) स्त्रियों की शय्या या आसन पर ना बैठना।
७) स्त्रियों से घुल-मिल कर बाते न करना।
८) भर पेट भोजन न करना।
९) कामोत्तेजक नृत्य, संगीत, फ़िल्म टी वी न देखना।
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एक नदी मुझसे मिलने सुना है, सारे रास्ते दौड़ती हाँफती आयी है
पर मेरे समीप आकर, मुझमें समाने से पहिले
देख रहा हूँ वह, एकदम शान्त हो गयी है
उसे देखकर ज़रा भी तो नहीं लगता
कि थकी हारी मुसीबतों को पार करती हुई
आयी होगी
सोच रहा हूँ कि क्या अपने में समाने से पहिले,
हम इतने ही शान्त हो जायेंगे ?
Munishri KshamaSagar Ji
मोक्षमार्ग के सेवक को संस्थाओं के झंझंट में कभी नहीं पङना चाहिये, क्योंकि लोग जुदे जुदे ख्याल के होते हैं, अपने अभिप्राय के अनुकूल कार्य का होना अत्यन्त कठिन है।
यदि शान्ति चाहते हो तब किसी कार्य में मुखिया मत बनो, कोई कार्य उचित जचता हो तो उसे बतलाकर अरत बने रहो, इसमें कुछ कपट भी नहीं क्योंकि तुमने शान्ति के लिये नैष्ठिक श्रावक का व्रत लिया है।
from Atma Sambodhan by Sahajanand Varni Ji
हीनता का भाव भी अहंकार पैदा करता है । दूसरे के सम्मान में अपना अपमान मानना भी अहंकार है ।
मुनिश्री क्षमासागर जी
स्वतन्त्रता में ही सुख है पर के सम्बन्ध से जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता, क्योंकि जहां पर पराधीनता है, वही दुःख है। स्वतन्त्रता ही सुख की जननी है, सुख का साधन एकाकी होना है।
मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० ४१ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji
मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० १ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji
आचार्य वर्धमान सागर जी: (link to source)
- क्रोध बोलता है, पर मान, माया, व लोभ बोलते नहीं हैं।
- डरो मत। संयम धारण करो। संयम धारण किये बना कल्याण नहीं होता।
- मोक्षमार्ग में साहस, उत्साह व धैर्य इन तीनो की आवश्यकता है।
- संसार में सेठ बनकर नहीं मुनीम बनकर रहो।
- शरीर मरणधर्मा है, पर आत्मा अमरधर्मा है।
- संक्लेष से क्षयोपक्षम घटता है, इसलिए बाह्य निमित्तो से बचो।
- क्रोधी मनुष्य आंखे होते हुये भी अंधा है।
- श्रम के पौधे पर सफ़लता के फ़ूल खिलते हैं।
- जो सुख को त्यागता है, वही चारित्र में प्रवृत्त होता है।
- जो घट में उतर जाता है, वह अन्तरघट को प्राप्त होता है।
- सभ्यता की एक मात्र कसौटी है, सहनशीलता।
- सम्यग्दृष्टि संसार में रह सकता है, किन्तु उसके ह्रदय में संसार नहीं रह सकता।
- जो हमारा है वो जाता नहीं, जो जाता है वो हमारा नहीं।
- गुण ग्रहण में छोटे बङे का भेद नहीं देखा जाता।
- विवेक और विनय बिना मोक्ष नहीं है।
- सुख-दुख कर्म के उदय से होता है।
- सब से मिले पर सब, में मिलों मत।
- अपने से छोटो को देखने वाला सुखी रहता है।
- सदोष चारित्र अचारित्र है।
- निंदा करने का फ़ल नरक में जाना है।
- कर्तव्य में प्रमाद नहीं करना ही सफ़लता है।
- संगठन के लिये सबसे बङा सूत्र "सुई बनो कैची मत बनो"।
- पुण्य के बिना मरण भी सुमरण नहीं हो सकता।
- प्रतिकूलता में से अनुकूलता को खोजने का नाम साधना है।
आचार्य विद्यासागर महाराज जी: (link to more quotes )
- जिन और जन में इतना ही अन्तर है कि एक वैभव के ऊपर बैठा है और एक के ऊपर वैभव बैठा है।
- श्रद्धा जब गहराती है तब वही समर्पण बन जाती है।
- मांगने से नहीं किन्तु अधिकार श्रद्धा से मिलते है।
- शिक्षा वही श्रेष्ठ है, जो जन्म-मरण का क्षय करती है।
- अपने आपको जानो, अपने को पहिचानो, अपनी सुरक्षा करो क्योंकि अपने में ही सब कुछ है।
- शरीर के प्रति वैराग्य और जगत के प्रति संवेग ये दोनो ही बातें आत्म कल्याण के लिये अनिवार्य है।
- अपने उपयोग का उपयोग पर की चिंता में ना करे।
- पंचपरमेष्ठी की भक्ति एवं ध्यान से विशुद्धि बढ़ेगी, संक्लेश घटेगा, वात्सल्य बढ़ेगा।
- भक्ति गंगा की लहर ह्रदय के भीतर से प्रवाहित होना चाहिये और पहुंचना चाहिये वहां कहां निस्सीमता हो।
- जो व्यक्ति वाणी को नियन्त्रित नहीं कर सकता वह साधना नहीं कर सकता।
- वें महान हैं जो मुख से एक शब्द निकालने में आगे पीछे विचार करते हैं।
- साधक बनों प्रचारक नहीं।
- लायक बन नायक नहीं।- आचार्य श्री
- मेरी भावना है कि मैं सदा पर में गुणों को देखूं और निज में दोषों को खोजूं क्योंकि अपने दोषों को नष्ट किये बिना गुणों का प्रकटीकरण सम्भव नहीं है।
- अपने हाथ की रेखाओं को मत देखों बल्कि अपनी सबल भुजाओं का अवलोकन करो और अपने बल का सदुपयोग करते हुए समस्त सुखों को प्राप्त करो।
- वह बीज जो अंकुरित हो जाता है उसका मुख सूर्य के ओर हो जाता है। इसी तरह जीव को जब आत्मज्ञान हो जाता है तो उसका मुख संयम की ओर हो जाता है।
- नित्य जिनेन्द्र देव के दर्शन, गुरूदेव का आशीर्वाद और उसके अनुसार पुरूषार्थ, ये तीने बातें मनुष्य को दुर्लभता से प्राप्त होती हैं। जिसे मिल जाती है उसे सारभूत परमार्थ की प्राप्ति हो जाती है।
- घर में रहकर आत्मबोध कम होता है और राग-द्वेष ज्यादा होते हैं। जैसे कपूर जलकर प्रकाश तो कम देता है लेकिन धुआं अधिक प्रदान करता है।
आचार्य विद्यासागर जी द्वारा हाइकु छन्द:
1. अपना मन
अपने विषय में
क्यों न सोचता।
अर्थ: मन अपना होते हुए भी हमेशा दूसरो के विषय में ही सोचता है अपने विषय में कभी भी नहीं।
2. जगत रहा
पुण्य पाप का खेत
बोया सो पाया
अर्थ: यह जगत पुण्य पाप के खेत की तरह है। इस खेत में जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
3. गुरू की चर्या देख
भावना होती
हम भी पावें।
अर्थ: गुरू की श्रेष्ठ चर्या को देखकर हमें भी उनके जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है।
4. मौन के बिना
मुक्ति संभव नहीं
मन बना ले।
अर्थ: मौन के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है इसलिये मौन धारण करने के बारे में सोचे।
5. डाट के बिना
शिष्य और शीशी का
भविष्य ही क्या।
अर्थ: शिष्य को यदि डाट न पङे और शीशी को यदि डाट न लगाया जाये तो दोनो का भविष्य खतरे में होता है।
6. गुरू ने मुझे
क्या न दिया हाथ में
दिया दे दिया।
अर्थ: गुरू ने हाथ में दीपक थमाकर मानों मुझे सब कुछ दे दिया।
7. जितना चाहा
जो चाहा जब चाहा
क्या कभी मिला।
अर्थ: इन्सान जितना चाहता है उतना, जो चाहता है वह, और जब चाहता है तब क्या उसे मिल पाता है? नहीं।
8. मन की बात
नहीं सुनना होती
मोक्षमार्ग में।
अर्थ: मोक्षमार्ग में मन की बात सुनना अहितकर हो सकता है।
9. असमर्थन
विरोध सा लगता
विरोध नहीं।
अर्थ: किसी बात का समर्थन न करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका विरोध किया जा रहा है, परन्तु वह विरोध नहीं होता।
10. मोक्षमार्ग में
समिति समतल
गुप्ति सीढ़ियां।
अर्थ: मोक्षमार्ग में समितियां का पालन समतल पर चलने की तरह होता है जबकि गुप्तियों का पालन सीढियां चढ़ने की तरह।
11. स्वानुभूति ही
श्रमण का लक्ष्य हो
अन्यथा भूसा।
अर्थ: आत्मा की अनुभूति ही श्रमण का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा न होने पर सब कुछ व्यर्थ है।
12. प्रकृति में जो
रहता है वह सदा
स्वस्थ रहता।
अर्थ: प्रकृति में जीने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता।
13. तेरी दो आंखे
तेरी ओर हजार
सतर्क हो जा।
अर्थ: दूसरों को देखेने के लिये हमारे पास केवल दो आंखे हैं। लेकिन हमारी ओर उठने वाली आंख हजारों हैं इसलिये एक एक कदम फ़ूंक फ़ूंक कर रखना चाहिये।
14. पौंधे न रोपें
और छाया चाहते
पौरूष्य नहीं।
अर्थ: मानव वृक्षारोपण तो करता नहीं और छांव चाहता है। यह तो पौरूष नहीं।
15. मान शत्रु है
कछुआ बनूं बचूं
खरगोश से।
अर्थ: मान शत्रु है, कछुआ की तरह निरहंकारी बन अपने पथ पर चलता रहूं न कि अहंकारी खरगोश की तरह जीवन में पराजय को प्राप्त होऊं।
16. मैं क्या जानता
क्या क्या न जानता सो
गुरूजी जानें।
अर्थ: मैं क्या जानता हूं और क्या नहीं, यह तो गुरू ही जानें।
17. मान चाहूं न
पै अपमान अभी
सहा न जाता।
अर्थ: मान सबको अच्छा लगता है। अपमान कोई नहीं सह पाता।
18. बिना प्रमाद
’श्वसन क्रिया सम’
पथ पे चलूं।
अर्थ: जैसे श्वास बिना रूके निरन्तर चलती रहती है उसी प्रकार मैं भी अपने पथ पर निरन्तर चलता रहूं।
19. जिन बोध में
’लोकालोक तैरते’
उन्हे नमन।
अर्थ: जिनेन्द्र देव के ज्ञान में लोकलोक झलकते हैं उन्हे हमारा नमस्कार हो।
20. उजाले में हैं
“उजाला करते हैं”
गुरू को बन्दूं।
अर्थ: जो स्वयं प्रकाशित हैं और सबको प्रकाश दिखाते हैं ऐसे गुरू को वन्दन करते हैं।
21. साधना छोङ
’कायरत होना ही’
कायरता है।
अर्थ: साधना से विमुख होकर शरीर से ममत्व करना कायरता है।
22. बिना रस भी
पेट भरता छोङो
मन के लड्डू।
अर्थ: इन्द्रियों के वशीभूत होकर रसों का सेवन करना बंद करो क्योंकि पेट भरने के लिये नीरस भोजन भी पर्याप्त हैं।
23. संघर्ष में भी
’चंदन सम सदा’
सुगन्धि बांटू।
अर्थ: भले ही मुझे कष्ट झेलने पङे परन्तु मैं चन्दन की तरह सबको खुशबू प्रदान करता रहूं।
24. पाषाण भीगे
’वर्षा में, हमारी भी’
यही दशा।
अर्थ: वर्षा में भीगे हुये पाषाण की तरह हमारी दशा है जिसका असर बहुत शीघ्र समाप्त हो जाता है।
25. आप में न हो
’तभी तो अस्वस्थ हो’
अब तो आओ।
अर्थ: अपने आप में नहीं रहने वाला अस्वस्थ रहता है। इसलिये अब अपने में आ जाओ।
26. घनी निशा में
’माथा भयभीत हो’
आस्था आस्था है।
अर्थ: संकट के समय यदि घबरा गये तो समझो आस्था कमजोर है।
27. मलाई कहां
अशांत दूध में सो
प्रशांत बनो।
अर्थ: अशांत दूध में मलाई नहीं होती, इसलिये शान्त बनों।
28. खाल मिली थी
यही मिट्टी में मिली
खाली जाता हूं।
अर्थ: चर्म का यह तन मिला था यह भी अन्ततः मिट्टी में मिल गया। खाली हाथ जाना होगा।
29. आगे बनूंगा
अभी प्रभु पदों में
बैठ तो जाऊं
अर्थ: पहले भगवान के चरणों में बैठना होगा, तभी भगवान बनना सम्भव है।
30. अपने मन,
को टटोले बिना ही
सब व्यर्थ है।
अर्थ: अपने मन को टटोलते रहना चाहिये अन्यथा सब व्यर्थ है।
31. देखो ध्यान में
कोलाहल मन का
नींद ले रहा।
अर्थ: ध्यान में मन का शोर समाप्त हो जाता है।
32. द्वेष से राग,
जहरीला है जैसे
शूल से फ़ूल।
अर्थ: द्वेष की अपेक्षा राग ज्यादा हानिकारक है, जैसे फ़ूल की अपेक्षा कांटा ज्यादा खतरनाक होता है।
33. छाया सी लक्ष्मी,
अनुचरा हो यदि
उसे न देखो।
अर्थ: यदि लक्ष्मी की तरफ़ ध्यान न दो वह दासी की तरह साथ देती है।
34. कैदी हूं देह
जेल में जेलर ना
तो भी भागा ना।
अर्थ: देह रूपी जेल में आत्मा कैद है। उस जेल में जेलर नहीं है फ़िर भी इसने भागने की कोशिश नहीं की। कारण इसे उस कैद में ही रस आने लगा है।
35. निजी पराये,
बच्चों को दुग्ध-पान
कराती गौ मां।
अर्थ: अपने पराये का भेद भुलाकर गौ माता सबको दुग्धपान करती है।
36. ज्ञानी कहता,
जब बोलूं अपना
स्वाद टूटता।
अर्थ: ज्ञानी कहता है कि जब भी मैं बोलता हूं बाहर आ जाता हूं और आत्मा के सुख से वंचित रह जाता हूं।
37. समानान्तर,
दो रेखाओं में मैत्री
पल सकती।
अर्थ: मैत्री समान लोगों की ही होती है। जैसे कि दो समानान्तर रेखायें अन्त तक साथ चलती है।
38. वक्ता व श्रोता
बने बिना गूंगा सा
स्व का स्वाद ले।
अर्थ: आत्मा का रस लेने के लिये मूक बनना होगा। न वक्ता और न ही श्रोता।
39. परिचित भी,
अपरिचित लगे
स्वस्थ ज्ञान में।
अर्थ: आत्मस्थ दशा में परिचित व्यक्ति भी, वास्तविकता का बोध हो जाने से अपरिचित ही लगना चाहिये।
40. नौ मास उल्टा
लटका आज तप
कष्टकर क्यों।
अर्थ: नव मास तक मां के पेट में उल्टा लटकता रहा फ़िर भी आज तप करने से डरता है।
41. कहो न सहो
सही परीक्षा यही
आपे में रहो।
अर्थ: कहो मत बल्कि सहो। सही परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आप में रहने पर होती है।
ब्रहमचारी अन्नु भैया की डायरी से:
अपने जीवन को सुखी कैसे बनाये:
सच्चे देव शास्त्र और गुरू की विनय में कभी कमी ना आये।
साधु की उपेक्षा ना करें।
अपनी फ़ोटो के प्रकाशन की भावना न आयें।
अर्थोपार्जन के नये तरीके ना खोजे।
हटाग्रह या विरोध ना करें।
अधिक क्रोध ना करें।
पक्षपात पूर्ण वृत्ति ना हो।
समाज के बीच रहकर अधिक सम्बन्ध ना बनायें।
प्रदर्शन की भावना ना रखें।
प्रतिस्पर्धा से बचे।
निन्दा से बचे।
अपनी संस्कृति की रक्षा करें
रात्रि भोजन एवं रात्रि विवाह बन्द करें।
दहेज प्रथा का विरोध करें।
भ्रूण हत्या का खुलकर विरोध करें।
अण्डा शाकाहारी नहीं हो सकता इसका खुलकर विरोध करें।
नशीले पदार्थ का प्रयोग बन्द करें
हिंसक सौन्दर्य प्रसाधन व चमङे की वस्तुओं का प्रयोग न करें।
पर्यावरण बचायें, जंगल उजङने ना दे, वृक्षो से प्यार करें।
प्लास्टिक पोलीथिन का प्रयोग कम से कम करें।
गौशालाओं को दान करें, नई गोशालायें खुलवायें।
Television का प्रहेज करें।
घरों में वृद्धों की सेवा करना ना भूलें।
स्कूल कालिजो में शाकाहार साहित्य वितरित करेम।
भङकीले कपङे, पारदर्शी कपङे अपनी जबान बेटियों को ना पहननें दें।
स्वर्णिम सूत्र:
घर को स्वच्छ और सुन्दर रखियें। घर की छोटी-बङी सब वस्तुएं निर्धारित स्थान पर रखियें।
घर के काम काज में सहयोग कीजिये, खाने की वस्तुएं पहले पहले छोटों को दीजिये।
घर आये अतिथि को प्रसन्न ह्रदय से सत्कार कीजिये, लौटते समय दरवाजे तक पहुंचकर विदा कीजिये।
घर में शान्ति बनायें रखने के लिये स्वयं शान्त रहिये, अशान्ति का वातावरण बन जाने पर घर के सदस्यों को प्रेमपूर्वक समझाइये।
घर की गोपनीय बातों को उजागर मत कीजिये, दूसरो की गुप्त बातों को जानने का प्रयत्न न कीजिये।
सबके साथ नम्रता और मधुरता पूर्वक पेश आइये, निन्दा, व्यंग की भाषा का उपयोग करने में परहेज रखिये।
कही हुई बात को वचन समझिये, उसे पूरा करने की कोशिश कीजिये।
क्रोध के क्षणों में जवाब मत दीजिये, औरो की भूलों को क्षमा करने की सामर्थ्य रखिये।
असहाय और विपदाग्रस्त लोगों की सहायता कीजिये; स्वयं पर कष्ट आ जाये तो धैर्य और साहस से सामना कीजिये।
बङो के सम्मान का ध्यान रखियें, उनकी मान मर्यादा को निभाने की कोशिश कीजिये।
कर्मचारियों के साथ इस तरह पेश आइये कि वें आप पर सदा गौरव कर सकें।
व्यसनों से ग्रस्त होकर औरों के दुःख दर्द का कारण न बनियें, व्यसन मुक्त स्वस्थ समाज की संरचना में सहयोग कीजिये।
जिन्दगी होगी सफ़ल:
धैर्य सबसे बङा गुण है। यदि इंसान को धैर्य रखना आ जाये, तो वह सुखी हो जाये।
यदि आपने आगे बङने का प्रण कर लिया है, तो चुनौतियों को स्वीकारें।
किसी कार्य को बीच में ना छोङे, क्योंकि हर कार्य हमारे अगले कार्य में हमारे हौसले को मजबूत करता है।
आप कहां गलत हैं या थे उस कमी को देंखे, सुधारे और पुनः करने से बचे।
अपने आसपास एक सकारात्मक वातावारण का निर्माण करें तथा ऐसे ही लोगो की संगत करें जिनकी सोच सकारात्मक और आशावादी हो।
परवरिश:
बच्चो की प्रथम पाठशाला उसका घर होता है और प्रथम शीक्षिका मां होती है, अतः मां को विशेष ध्यान रखना चाहिये। बच्चों के सामने सभ्यता से बोलें और अच्छा आचरण करें। आप जैसा आचरण करेंगे वैसा ही बच्चा सीखेगा।
बच्चो की सभी बातों में मीनमेक ना निकाले और न ही बात-बात में उसे रोके-टोके। बच्चो को प्यार से समझायें। उसके दोस्तो के सामने उसे डांटे नहीं।
आपका बच्चा जब कोई अच्छा काम करें तो उसकी प्रशंसा करना ना भूलें। माता-पिता की प्रशंसा बच्चो के अन्दर आत्मविश्वास जगाती है और भविष्य में वो और भी अच्छा perform करता है।
कभी-कभी बच्चो की जिद भी मान लें। जिद करना तो बाल-सुलभ स्वभाव है। थोङी समझदारी से उसके इस स्वभाव को हैंडिल करें, तो उसकी यह आदत धीरे-धीरे कम हो जायेगी।
दूसरे बच्चों से अपने बच्चो की तुलना ना करें।
अपने बच्चो में ईर्ष्या- द्वेष की भावना ना पनपनें दे।
बच्चो को जिम्मेदार व अनुशासित बनाने से पहले स्वयं अनुशासित व जिम्मेदार बनें।
बच्चों में शुरू से ही sharing की आदत डाले। उसे अपने खिलौने या chocolate अपने दोस्तो या भाई बहनो के साथ मिल-बांटकर खेलना-खाना सिखायें। इस तरह वो बचपन से ही social होना सीखेगा।
बच्चो से अधिक अपेक्षायें ना करे। अक्सर parents अपनी अधूरी महत्वकांक्षा बच्चो के जरिए पूरा करना चाहते हैं और इसके लिए वो बच्चो पर दबाव डालते हैं, जो सही नहीं है।
बच्चो को अनुशासन सिखायें, लेकिन उन्हे अनुशासन के दायरे में बांध कर ना रखें। अनुशासन के दायरे में बांधकर रखने से बच्चो का समुचित विकास नहीं हो पाता।
नम्रता, दया, परोपकार, दूसरों से प्रेम, बङो का आदर, सत्य बोलना इन बातों को बचपन से बच्चो को सिखाने का प्रयास आरंभ करें। मिथ्या अभिमान से उन्हे बचाने का भरसक प्रयास करें\
सत्य और सत्ता:
जो दूसरो को सता-सता कर मिले वह सत्ता है और जो स्वयं को तपा-तपाकर मिले वह सत्य है। सत्ता के लिये दूसरो को मिटाना पङता है, जबकि सत्य के लिये स्वयं को मिटना पङता है। सत्ता शाश्वत नहीं, सत्य शाश्वत है।
अपने व्यक्तित्व को कैसे संभारे:
अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें।
दूसरो के लिये भी सोचे।
सबका भला हो, सदा ऐसा सोचे।
अपने व्यक्तित्व को कैसे संभारे:
मुस्करायें और दयालु बनें।
अच्छे श्रोता बनें।
अपने आप को दूसरे के स्थान पर रखकर देखें।
जीवन में हमेशा उत्साह बना के रखें।
जब हम कोई गल्ती करते हैं उसे तुरन्त खुशी से स्वीकार करें।
जब दूसरे लोग अपनी गल्ती का एहसास करके उसे स्वीकार करें, तो उसे धन्यवाद दें।
किसी से तर्क तो करें तकरार नहीं।
एहसान तो माने, लेकिन एहसान मंदी की उम्मीद ना करें।
भरोसे बन्द बनें और वफ़ादारी निभानी का प्रयास करें।
दूसरे को समझने और ख्याल रखने वाले बनें।
सीधा उपदेश देने की अपेक्षा प्रश्न कीजिये।
अतिथी के पीछे चलें आगे नहीं।
दुनिया में दूसरों को सुधारना सबसे जटिल काम है। लेकिन जो जैसा है, आप उसे उपनाकर खुद को बदलने की ताकत दे सकते हैं।
गुरूजन के साथ शिष्टाचार:
गुरू के सम्मान में कभी कमी नहीं आनी चाहिये।
गुरू की जैसे भी बनें सेवा करनी चाहिये।
गुरू के वचनो को कभी भूलना चाहिये।
गुरू के आने पर खङा हो जान चाहिये।
गुरू के आसन पर नहीं बैठना चाहिये।
गुरू के बैठने के बाद ही बैठना चाहिये।
गुरू के साथ विवाद नहीं करना चाहिये।
गुरू के अनुकूल वचन बोलने चाहिये।
गुरू से तीन हाथ दूर बैठना चाहिये।
चलते समय पैर छूकर वंदना नहीं करनी चाहिये।
गुरू की बराबरी से नहीं चलना चाहिये, अपितु बाईं तरफ़ एक कदम पीछे चलना चाहिये।
गुरूओं की कमी, दोष या गल्ती देखकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिये, अपितु एकान्त में उन्हे परोक्ष रूप से संकेत देना चाहिये।
गुरू के आदेशो का तत्परता से पालन करना चाहिये।
गुरू से कुछ भी बात मत छुपाओ।
सहपाठी के साथ शिष्टाचार
संकट के समय में भी दोस्त का साथ देना चाहिये।
साथी के सुधार की भावना रखनी चाहिये पर नीचे दिखाने की भावना कभी नहीं रखनी चाहिये।
सहपाठी से मिलते-बिछुङते समय मुस्कुराना ना भूलें।
सहपाठी के साथ छोटी-छोटी बातों पर विवाद ना करें।
असमान बिन्दुओं पर कम चर्चा करें।
सहपाठी की गल्तियों का समर्थन न करें, अपितु उन्हे बर्दाश्त करते हुए सुधारने का प्रयास अवश्य करें।
तेरह पंथ और बीस पंथ:
तेरह पंथ और बीस पंथ के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे। आचार्य श्री जी से 1989 में पनागर में जब यह प्रश्न किया गया, तो आचार्य श्री जी ने कहा पंथ भेद के नाम पर समाज बहुत बट गया है। अपने को तटस्थ रहना है जहां जैसी परम्परा चल रही है चलने दो, हां इतना ध्यान रखना कोई भी क्रिया का निषेध नहीं है क्रिया में अतिरेक और अविवेक नहीं होना चाहिये। नहीं तो सम्यक्त्व की असाधना होती है।
सामान्य शिष्टाचार:
व्यर्थ ही पेङो के पत्ते, फ़ल, फ़ूल नहीं तोङने चाहिये।
वस्तुओं को यथास्थान रखना चाहिये।
व्यर्थ में लाइट, पंखा, नल, गैस आदि खुले नहीं छोङना चाहिये।
बिना आवाज किये दरवाजा खोलना व बन्द करना चाहिये।
दूसरों की गुप्त वार्ता सुननी नहीं चाहिये।
किसी का बुरा नहीं विचारना चाहिये।
प्राप्त वस्तुओं में सन्तोष रखना चाहिये।
अभाव या गरिबी में दीनता नहीं लानी चाहिये।
संकट में धैर्य रखना चाहिये।
कठिनाइयों में साहस नहीं खोना चाहिये।
घर आये शत्रु का भी सम्मान करना चाहिये।
सब से घुल-मिल कर रहना चाहिये।
बुरे लोगो की संगति नहीं करनी चाहिये।
दूसरो की वस्तुओं को लालच की दृष्टि से ना देखें।
सत्पात्र दान व पूजा से जी नहीं चुराना चाहिये।
लोक विरूद्ध कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये।
चलते समय दीवार पर हाथ नहीं फ़ेरना चाहिये।
अपने से बङो के आगे नहीं चले।
पीछे आकर आगे नहीं बैठना चाहिये।
खान पान पहनावा व आचार विचार में सादगी रखें।
उत्तेजक, अश्लील, साहित्य, संगीत व फ़िल्मों से दूर रहें।
दूसरों के दोष नहीं गुण देखना चाहिये।
आमदनी से खर्चा अधिक नहीं करना चाहिये।
शिष्टाचार:
शिष्टाचार के प्रमुख दो सिद्धान्त हैं। प्रथमतः अपना नम्र मृदु व्यवहार, दूसरा औरों का सम्मान की समुचित रक्षा। उद्दंडता, असभ्यता का जरा सा भी व्यवहार हमें शिष्टाचार से कोंसों दूर खङा कर देता है। प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, प्रमाद, उतावलापन, अहंकार, निष्ठुरता, कृतघ्नता शिष्टाचार के सबसे बङे दुश्मन हैं शत्रु हैं।
शील की नौ बाङ:
१) स्त्री राग वर्धक कथा ना सुनना
२) स्त्रियों के मनोहर अंगो को न देखना।
३) पहले भोगे हुए भोगो को याद ना करना।
४) गरिष्ट व स्वादिष्ट भोजन न करना।
५) अपने शरीर को श्रंगारित न करना
६) स्त्रियों की शय्या या आसन पर ना बैठना।
७) स्त्रियों से घुल-मिल कर बाते न करना।
८) भर पेट भोजन न करना।
९) कामोत्तेजक नृत्य, संगीत, फ़िल्म टी वी न देखना।
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एक नदी मुझसे मिलने सुना है, सारे रास्ते दौड़ती हाँफती आयी है
पर मेरे समीप आकर, मुझमें समाने से पहिले
देख रहा हूँ वह, एकदम शान्त हो गयी है
उसे देखकर ज़रा भी तो नहीं लगता
कि थकी हारी मुसीबतों को पार करती हुई
आयी होगी
सोच रहा हूँ कि क्या अपने में समाने से पहिले,
हम इतने ही शान्त हो जायेंगे ?
Munishri KshamaSagar Ji
मोक्षमार्ग के सेवक को संस्थाओं के झंझंट में कभी नहीं पङना चाहिये, क्योंकि लोग जुदे जुदे ख्याल के होते हैं, अपने अभिप्राय के अनुकूल कार्य का होना अत्यन्त कठिन है।
यदि शान्ति चाहते हो तब किसी कार्य में मुखिया मत बनो, कोई कार्य उचित जचता हो तो उसे बतलाकर अरत बने रहो, इसमें कुछ कपट भी नहीं क्योंकि तुमने शान्ति के लिये नैष्ठिक श्रावक का व्रत लिया है।
from Atma Sambodhan by Sahajanand Varni Ji
हीनता का भाव भी अहंकार पैदा करता है । दूसरे के सम्मान में अपना अपमान मानना भी अहंकार है ।
मुनिश्री क्षमासागर जी
स्वतन्त्रता में ही सुख है पर के सम्बन्ध से जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता, क्योंकि जहां पर पराधीनता है, वही दुःख है। स्वतन्त्रता ही सुख की जननी है, सुख का साधन एकाकी होना है।
मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० ४१ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji