श्रुतधराचार्य
पट्टावलियों, अभिलेखों एवं प्रशस्त्रियों से श्रुताराधक आचार्यों की परम्परा का परिज्ञान प्राप्त होता है। तीर्थंकर महावीर के निर्वाण-गमन के पश्चात् दिगम्बर आचार्यों ने वाङ्मय का प्रणयन कर रत्नत्रय धर्म की ज्योति को सतत् प्रज्ज्वलित किया। आत्मशोधन और आत्म-आराधन के साथ श्रुत के अखण्ड दीप को सदैव प्रज्ज्वलित रहने के हेतु परम्परा से प्राप्त ज्ञानराशि को मूर्तरूप देकर सरस्वती का अवतार प्रस्तुत किया। वस्तुतः दिगम्बराचार्यों ने महावीर की परम्परा को जीवित रखने के लिए अगणित ग्रन्थों का प्रणयन कर अपनी साधना में गुणात्मक परिवर्तन कर परम्परा को जीवन्त रखा है।
आचार्य भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त

आचार्य भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त - अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों की गुर्वावलियँ भिन्न-भिन्न हो जाती हैं। किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय वे गंगा-यमुना के समान पुनः मिल जाती हैं तथा भद्रबाहु श्रुतकेवली के स्वर्गवास के पश्चात् जैन परम्परा स्थायी रूप से दो विभिन्न स्रोतों में प्रावाहित होने लगती है। अतएव भद्रबाहु श्रुतकेवली दोनों ही परम्पराओं में मान्य हैं।
पुण्ड्रवर्धन देश में देवकीट नाम का एक नगर था जिसका प्राचीन नाम कीटिपुर था। इस नगर में सोमशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था उसकी पत्नी का नाम सोमश्री था। उससे भद्रबाहु का जन्म हुआ था। बालक स्वभाव से ही होनहार और कुशाग्रबुद्धि था। उसका क्षयोपशम और धारण शक्ति प्रबल थी। आकृति सौम्य और सुन्दर थी। वाणी मधुर और स्पष्ट थी। एक दिन वह बालक नगर के बाहर अन्य बालकों के साथ गटुओं (गोलियों) से खेल रहा था। खेलते-खेलते उसने चौदह गोलियॊं को एक पर एक पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया। उर्जयन्तगिरि (गिरनार) के भगवान नेमिनाथ की यात्रा से वापिस आते हुए चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धन स्वामी संघ सहित कोटिग्राम पहँचे। उन्होने बालक भद्रबाहु को देखकर जान लिया कि यही बालक थोड़े दिनॊं में अन्तिम श्रुतकेवली और घोर तपस्वी होगा। अतः उन्होंने उस बालक से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किसके पुत्र हो। तब भद्रबाहु ने कहा कि मैं सोमशर्मा का पुत्र हूँ और मेरा नाम भद्रबाहु है। आचार्य श्री ने कहा क्या तुम चल कर अपने पिता का घर बता सकते हो? बालक तत्काल आचार्य श्री को अपने पिता के घर ले गया। आचार्य श्री को देखकर सोमंशर्मा ने भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना की और बैठने के लिए उच्चासन दिया। आचार्यश्री ने सोमशर्मा से कहा कि आप अपना बालक हमारे साथ पढ़ने के लिये भेज दीजिये। सोमशर्मा ने आचार्यश्री से निवेदन किया कि बालक को आप खुशी से ले जाइये और पढ़ाइए। माता-पिता की आज्ञा से आचार्यश्री ने बालक को अपने संरक्षण में ले लिया और उसे सर्वविद्याएं पढ़ाईं, कुछ ही वर्षों में भद्रबाहु सब विद्याओं में निष्णात हो गया। तब गोवर्धनाचार्य ने उसे माता-पिता के पास भेज दिया। माता-पिता उसे सर्व विद्या सम्पन्न देखकर अत्यन्त हर्षित हुए भद्रबाहु ने माता पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी और वह माता-पिता की आज्ञा लेकर वापिस गुरु के पास आ गया। निष्णात बुद्धि भद्रबाहु ने महावैराग्य सम्पन्न होकर यथासमय जिनदीक्षा ले ली और दिगम्बर साधु बनकर आत्मसाधना में तत्पर हो गया।
एक दिन योगी भद्रबाहु प्रातः काल कायोत्सर्ग में लीन थे। भक्तिवश देव, असुर और मेनुष्यों से पूजित हुए। गोवर्द्धनाचार्य ने उन्हें अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित कर, संघ का सब भार भद्रबाहु को सौंप कर निःशल्य हो गए। कुछ समय बाद गोवर्द्धन स्वामी का स्वर्गवास हो गया। गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् भद्रबाहु सिद्धि सम्पन्न मुनिपुंगव हुए। कठोर तपस्वी और आत्म ध्यानी संघ का सब भार वहन करने में वे निपुण थे। वे चतुर्दशपूर्वधर और अष्टांग महानिमित्त के पारगामी श्रुतकेवली थे। अपने संघ के साथ उन्होंने अनेक देशों में विहार कर धर्मोंपदेश द्वारा जनता का महान कल्याण किया।
भद्रबाहु श्रुतकेवली यत्र तत्र देशों में अपने विशाल संघ के साथ विहार करते हुए उज्जैन पधारे और क्षिप्रा नदी के किसी उपवन में ठहरे। वहाँ सम्राट मौर्य ने उनकी वन्दना की जो उस समय प्रांतीय उपराजधानी में ठहरा हुआ था। एक दिन भद्रबाहु आहार के लिए नगरी में गए। वे एक मकान के उस भाग में उपस्थित हुए जिस में कोई मनुष्य नहीं था, किन्तु पालने में झूलते हुए एक बालक ने कहा - "मुनि! तुम यहाँ से शीघ्र चले जाओ, चले जाओ।" तब भद्रबाहु ने अपने निमित्तज्ञान से जाना कि यहाँ बारहवर्ष का भारी दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। बारह वर्ष रक वर्षा न होने के कारण अन्नादि उत्पन्न न होंगे और धन-धान्य से समृद्ध यह देश शून्य हो जायेगा और भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खा जायेगा। यह देश राजा मनुष्य और तस्करादि से वहीन हो जायेगा। ऎसा जानकर आहार लिए बिना लौट गए अरु जिन मन्दिर में आकर आवश्यक क्रिया सम्पन्न की अरु अपराह्न काल में समस्त संघ में घोषणा की कि यहाँ बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष होने वाला है। अतः सब संघ को समुद्र के समीप दक्षिण देश में जाना चाहिए। सम्राट चन्द्रगुप्त ने रात्रि में सोते हुए सोलह स्वप्न देखे। वह आचार्य भद्रबाहु से उनका फल पूछने और धर्मोपदेश सुनने के लिए उनके पास आया और उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, अपने स्वप्नों क फल पूछा तब उन्होंने बताया कि तुम्हारे स्वप्नों का फल अनिष्ट सूचक है। यहाँ बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष पड़ने वाला है उससे जनधन की बड़ी हानि होगी। चन्द्रगुप्त ने यह सुनकर, पुत्र को राज्य देकर भद्रबाहु से दीक्षा ले ली। भद्रबाहु वहाँ से ससंघ चलकर श्रवणबेलगोला तक आये। भद्रबाहु ने कहा - मेरा आयुष्य अल्प है अतः मैं यहीं रहूँगा और संघ को निर्देश दिया कि वह विशाखाचार्य के नेतृत्व में आगे चले जाएं। भद्रबाहु श्रुतकेवली होने के साथ अष्टमहानिमित्त के भी पारगामी थे। उन्हें दक्षिण देश में जैनधर्म के प्रचार की बात ज्ञात थी तभी उन्होंने बारह हजार साधुओं के विशालसंघ को दक्षिण की ओर जाने की अनुमति दी।
भद्रबाहु ने सब संघ को दक्षिण के पाण्ड्यादि देशों की ओर भेजा क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वहाँ जैन साधुओं के आचार का पूर्ण निर्वाह हो जायेगा। उस समय दक्षिण भारत में जैन धर्म पहले से ही प्रचलित था। यदि जैनधर्म का प्रसार वहाँ नहीं होता तो इतने बड़े संघ का निर्वाह वहाँ किसी तरह नहीं हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म वहाँ प्रचलित था। लंका में भी ईसवी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में जैनधर्म का प्रचार था और संघस्थ साधुओं ने भी वहाँ जैन धर्म का प्रचार किया। तमिल प्रदेश के प्राचीनतम शिलालेख मदुरै और रामनाड जिले से प्राप्त हुए है’ जो अशोक के स्तम्भों में उत्कीर्ण लिपि में है। उनका काय ई. पूर्व तीसरी शताब्दी का अन्त और दूसरी शताब्दी का प्रारम्भ माना गया है। उनका सावधानी से अवलोकन करने पर ’पल्लै’ ’मदुराई’ जैसे कुछ तमिल शब्द पहचानने में आते हैं। उस पर विद्वानों के दो मत आते हैं। प्रथम के अनुसार उन शिलालेखों की भाषा तमिल है जो अपने प्राचीनतम अविकसित रूपों में पाई जाती है और दूसरे मत के अनुसार उनकी भाषा पैशाची प्राकृत है जो पाण्ड्य देशों में प्रचलित थी। जिन स्थानों से उक्त लेख प्राप्त हुए हैं उनके निकट जैन मन्दिरों के भग्नावेश और जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ पाई जाती हैं। जिन पर सर्प का फण या तीन छ्त्र अंकित हैं।
बौद्धग्रंथ महावंश की रचना लंका के राजा घंतुसेणु (४६१-४७९ ई.) के समय हुई थी। उसमें ५४३ ई. पूर्व से लेकर ३१० ई. के काल का वर्णन है। ४३० ई. पूर्व के लगभग पाण्डुगामय राजा के राज्य काल में अनुराधापुर में राजधानी परिवर्तित हुई थी। महावंश में इस नगर की अनेक नई इमारतों का वर्णन है उनमें से एक इमारत निर्ग्रन्थों के लिये एक मन्दिर भी बनवाया था इससे स्पष्ट है कि लंका में ईसा पूर्व ५वीं शती के लगभग जैनधर्म का प्रवेश हुआ होगा।
भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त वहीं रह गए। चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र था। वे भद्रबाहु के साथ कटवप्र पर ठहर गए और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया। भद्रबाहु की समाधि का भगवती आराधना में उल्लेख मिलता है। एक गाथा में बतलाय गया है कि भद्रबाहु ने अवमौदर्य द्वारा न्यून भोजन की घोर वेदना सहकर उत्तमार्थ की प्राप्ति की। चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की बहुत सेवा की। भद्रबाहु के दिवंगत होने के बाद श्रुतकेवली का अभाव हो गया क्योंकि वे अन्तिम श्रुतकेवली थे।
दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु के जन्मादि का परिचय हरिषेण कथाकोष, श्रीचन्द्र कथाकोष और भद्रबाहु चरित आदि में मिलता है और भद्रबाहु के बाद उनकी शिष्य परम्परा अंग पूर्वादि के पाठियों के साथ चलती है जिसका परिचय आगे दिया जायेगा।
श्वेताम्बर परम्परा में कल्पसूत्र आवश्यक के सूत्र, नन्दिसूत्र, ऋषिमंडल सूत्र और हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में भद्रबाहु की जानकारी मिलती है। कल्पसूत्र की स्थविरावली में उनके चार शिष्यों का उल्लेख मिला है पर वे चारों ही स्वर्गवासी हो गए अतएव भद्रबाहु की शिष्य परम्परा आगे न बढ़ सकी किन्तु उक्त परम्परा भद्रबाहु के गुरुभाई संभूति विजय के शिष्य स्थूलभद्र से आगे बढ़ी। वहाँ स्थूलभद्र को अन्तिम केवली माना गया है। महावीर निर्वाण से १७० वें वर्ष में भद्रबाहु का स्वर्गवास हुआ है और स्थूलभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं. १५७ से २५७ तक अर्थात् ई. पूर्व २७० में या उसके कुछ कम पूर्व हुआ।
दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु का पट्टकाल २९ वर्ष माना जाता है जब कि श्वेताम्बर परम्परा में पट्टकाल १४ वर्ष बतलाय गया है तथा व्यवहार सूत्र छेदसूत्रादि ग्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा रचित कहे जाते हैं।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु का स्वर्गवास वी. निर्वाण सं. १६२ वें वर्ष अर्थात् २६५ ई. पूर्व माना जाता है। दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु के द्वारा रचित साहित्य नहीं मिलता। इसमें आठ वर्ष का अन्तर विचारणीय है।
आचार्य पुष्पदन्त-भूतवली - गुणधराचार्य के पश्चात् अंग-पूर्वों के एक देश ज्ञाता धरसेन हुए। ये सौराष्ट्र देश गिरिनार के समीप उर्जयन्त पर्वत की चन्द्रगुफा में निवास करते थे। ये परवादी रूप हाथियों के समूह का मदनाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के समान थे। अष्टांग महानिमित्त के पारगामी और लिपि शास्त्र के ज्ञाता थे। वर्तमान में उपलब्ध श्रुत की रक्षा का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं को प्राप्त है। कहा जाथ है कि प्रवचन-वत्सल धरसेनाचार्य ने अंग श्रुत के विच्छेदन हो जाने के भय से महिमा नगरी में सम्मिलित दक्षिणा पथ के आचार्यों के पास एक पत्र भेजा। पत्र में लिखे गए धरसेन के आदेश को स्वीकार कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ विविध प्रकार के चारित्र से उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित शील रूपी माता के धारी सेवा भावी देश कुल जाति से शुद्ध, समस्त कलाओं के पारगामी एवं आज्ञाकारी दो साधुओं को आंध्र देश की वन्या नदी के तट से रवाना किया। इन दोनों मुनियों के मार्ग में आते समय धरसेनाचार्य ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान श्वेत वर्ण के दो बैलों के अपने चरणों में प्रणाम करते देखा। प्रातः काल उक्त दोनों साधुओं के आने पर धरसेनाचार्य ने उन दोनों की परीक्षा ली और जब आचार्य को उनकी योग्यता पर विश्वास हो गया तब उन्होंने अपना श्रुतोपदेश देना प्रारंभ किया। जो आषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। गुरु धरसेन ने इन दोनों शिष्यों का नाम पुष्पदन्त और भूतबली रखा। गुरु के आदेश से ये शिष्य गिरनार से चलकर अंकलेश्वर आये और वहीं उन्होंने वर्षाकाल व्यतीत किया। अनन्तर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देश को और भूतबली तमिल देश की ओर चले गए।
पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर उसके अध्यापन हेतु सत्प्ररूपणा तक के सूत्रों की रचना की और उन्होंने उन सूत्रों को संशोधनार्थ भूतबली के पास भेज दिया। भूतबलि ने जिनपालित के पास उन सूत्रों को देखकर पुष्पदन्त आचार्य को अल्पायु जानकर महाकर्म प्रकृति पाहुड का विच्छेन ना हो जाये इस ध्येय से आगे द्रव्यप्रमाणादि आगम की रचना की। इन दोनों आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ षट्खण्डागम कहलाता है। इस ग्रन्थ की सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्र पुष्पदन्त ने और शेष समस्त सूत्र भूतवली के द्वारा रचित हैं अतएव यह स्पष्ट है कि श्रुत व्याख्याता धरसेन हैं और रचयिता पुष्पदन्त तथा भूतबलि।
इन आचार्यों के समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो ज्ञात नहीं है पर इन्द्र-नन्दी कृत श्रुतावतार में लोहाचार्य के पश्चात विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त इन चार आरातीय -आचार्यों का उल्लेख मिलता है और तत्पश्चात् अर्हद्बलि का तथा अर्हद्बलि के अनन्तर धरसेनाचार्य का नाम आता है। इन्द्रनन्दि के अनुसार कुन्दकुन्द षट्खण्डागम के टीकाकार हैं। अतः पुष्पदन्त और भूतबलि का समय कुन्दकुन्द के पूर्व है। विद्वानों ने अनेक पुष्ट प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि षट्ख्ण्डागम की रचना प्रथम शती में होनी चाहिए।
प्राकृत पट्टावलि में श्रुतधरों की - जो परम्परा अंकित है उससे भी षट्खण्डागम का रचना काल ई. सन् प्रथम शताब्दी आता है।
पट्टावलि के अनुसार अर्हद्बलि का समय ई. सन् ३८ है। माघनन्दि का ई. सन् ६६ और धरसेन का ई. सन् ८५ आता है। धरसेन के जीवन काल में ही षट्खण्डागम लिखा गया है। धरसेन माघनन्दि के समय में विद्यमान थे। पर पट्टावलि में माघनन्दि के पट्ट के पश्चात् ही धरसेन का निर्देश प्राप्त होता है। यों तो अर्हद्बलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि ये पाँचों आचार्य समयवर्ती हैं। पट्टावलि में इनका काल ११८ वर्ष माना गया है। अतः ई. सन् की प्रथम शती में इनका परस्पर में साक्षात्कार अवश्य हुआ होगा।
षट्खण्डागम (छक्खंडागम) सूत्र - इस आगम ग्रन्थ में छह खण्ड हैं- जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्तविचय, वंदना, वग्गणा, और महाबन्ध। इस ग्रन्थ का विषय स्तोत्र बारहवें दृष्टिवाद श्रुतांग के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व आग्रायणीय के चयनलब्धि नामक पञ्चम अधिकार के चतुर्थ पाहुड़ कर्म प्रकृति को माना जाता है।
१. जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्ड में जीव के गुण, धर्म और नाना अवस्थाओं का सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ प्ररूपणाओं का वर्णन किया गया है। इसके अनन्तर नौ चूलिकाएं हैं। जिनके नाम प्रकृति समत्कीर्त्तन, स्थानसमत्कीत्तर्न, प्रथममहादण्डक, द्वितीयमहादण्डक, तृतीय महादण्डक, उत्कृष्टस्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-अगति है। सत्प्ररूपणा के प्रथम सूत्र में पञ्चनमस्कार मण्त्र का पाठ है। इस प्ररूपणा का विषय-विवेचन ओघ और आदेश क्रम से किया गया है। ओघ में आत्मोत्क्रान्ति के द्योतक मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र अविरति आदि चौदह गुणस्थानों का और आदेश में गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद आदि चौदह मार्गणाओं का विवेचन है। सत्प्ररूपणा के ४०वें सूत्र से ४५वें सूत्र तक छह काय जीवों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। जीवों के बादर और सूक्ष्म भेदों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद किये गए हैं। वनस्पतिकाय के साधारण और प्रत्येक ये दो भेद किये हैं। जीवट्ठाण खण्ड की दूसरी प्ररूपणा द्रव्य-प्रमाणानुगम है। इसमें १९२ सूत्रों में गुणस्थान और मार्गणाक्रम से जीवों की संख्या का निर्देश किया है। इस सन्दर्भ में गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यस्त राशि आदि गणित की मौलिक प्रतिक्रियाओं का उल्लेख भी किया गया है। क्षेत्र प्ररूपणा में ९२ सूत्र हैं और विभिन्न दृष्टियों से जीव के क्षेत्र का निरूपण किया गया है। स्पर्शन प्ररूपणा में १८५ सूत्र हैं। विभिन्न दृष्टियों से जीवों के स्पर्शन क्षेत्र का निर्देश किया गया है। कालानुयोग में मर्यादाओं की कालावधि का कथन किया गया है। अन्तर प्ररूपणा में ३९७ सूत्र हैं। इन सूत्रों में बताया गया है कि जब विवक्षित गुण गुणान्तर रूप से संक्रमित हो जाता है और पुनः उसकी प्राप्ति होती है तो मध्य के काल को अन्तर कहते हैं। यह अन्तर काल सामान्य और विशेष की अपेक्षा से दो प्रकार क होता है। सूत्रकार ने एक जीव और नाना जीवों की अपेक्षा एक ही गुणस्थान और मार्गणा में रहने को जघन्य और उत्कृष्ट कालाधिक का निर्देश करते हुए अन्तरकाल का निरूपण किया है। भावानुयोग में ९३ सूत्र हैं। इन में गुणस्थान और मार्गणा क्रम से जीवों के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारणामिक भावों के भेद-प्रभेदों और स्थितियों का निरूपण किया गया है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म प्रकृतियों के उदय, उपशमादि की विभिन्न अवस्थाएं भी वर्णित हैं। अल्पबहुत्व प्ररूपणा में ३८२ सूत्र हैं। इस प्ररूपणा में नाना दृष्टियों से जीवों का हीनाधिक विवेचन किया है। अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्वी जीव अन्य सब स्थानों की अपेक्षा प्रमाण में अल्प और परस्पर तुल्य होते हैं।
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओं के अतिरिक्त जीवस्थान की नौ चूलिकाएं हैं। प्रकृतिसमुकीर्तन नाम की चूलिका में ४६ सूत्र हैं। क्षेत्र, काल और अन्तर प्ररूपणाओं में जीव के क्षेत्र और काल सम्बन्धी जो परिवर्तन किए गए हैं वे विशेष बन्ध के कारण ही उत्पन्न हो सकते हैं इन सभी चूलिकाओं में कर्म बन्ध, कर्म बन्ध का अधिकारी जीव, कर्म का आबाधा काल, कर्मों की स्थिति, आत्मोत्क्रान्ति के लिए सम्यक्त्व की आवश्यकता, सम्यक्त्व उत्पत्ति का काल आदि का विस्तृत विवेचन है। इस जीवट्ठाण खण्ड में २३७५ सूत्र हैं और यह सत्रह अधिकारों में विभाजित हैं।
२. खुद्दाबंध (क्षुद्रकबन्ध) है। सिद्धान्त की दृष्टि से यह द्वितीय खण्ड बहुत ही उपयोगी है। इसमें मार्गणास्थानों के अनुसार बन्धक और अबन्धक जीवों का विवेचन किया गया है। इसमें ग्यारह अनुयोग द्वार हैं -
१. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व
२. एक जीव की अपेक्षा काल
३. एक जीव की अपेक्षा अन्तर
४. नाना जीवों की अपेक्षा भंग विचय
५. द्रव्यप्रमाणानुगम
६. क्षेत्रानुगम
७. स्पर्शानुगम
८. नाना जीवों की अपेक्षा काल
९. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर
१०.भागा-भागानुगम
११.अल्पबहुत्वानुगम
इस द्वितीय खण्ड में १५८२ सूत्र हैं। इनमें कर्मास्रव, बन्ध, बन्ध की स्थिति, नरकादि गतियों में निवास करने जीवों के विविध परिणाम आदि का विवेचन किया है।
३. बंधसामित्तविचय (बन्धस्वामित्वविचय) - नामक तृतीय खण्ड में बन्ध के स्वामी का विचार किया गया है। विचय शब्द का अर्थ विचार, मीमांसा और परीक्षा है। यहाँ इस बात का विवेचन किया गया है कि कौन सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान और मार्गणा में संभव है अर्थात् कर्म बन्ध के स्वामी कौन से मार्गणास्थानवर्ती जीव हैं। इस खण्ड में ३२४ सूत हैं। कर्म प्रकृतियों का बन्ध, उदय, सत्त्व और बन्धव्युच्छित्ति आदि का विस्तृत विवेचन किया है।
४. वेदना खण्ड - इस खण्ड में निक्षेप, नय, नाम, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रत्यय, स्वामित्व, वेदना विधान, गति, अनन्तर, सन्निकर्ष, परिमाण, भागाभाग एवं अल्पबहुत्व इन सोलह अधिकारों द्वारा विषय का प्रतिपादन किया है। इस खण्ड में १४४९ सूत्र हैं।
५. वर्गणा खण्ड - इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगों द्वारा प्रतिपादन किया गया है। स्पर्शन अनुयोगद्वार में स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्श, नाम विधान, स्पर्शद्रब्य विधान आदि सोलह अधिकारों में स्पर्श का विचार किया गया है। कर्म अनुयोग द्वार में नामकर्म, स्थापना कर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदान कर्म, अधःकरण कर्म, ईर्यापथकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म प्ररूपणा हैं। इस खण्ड में बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध विधान का भी ७२७ सूत्रों में कथन है।
६. महाबन्ध - इसका दूसरा नाम महाधवल है। इसकी रचना आचार्य भूतबलि ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण की है। इस खण्ड में चार अधिकार हैं।
१. प्रकृतिबन्ध अधिकार
२. स्थितिबन्ध अधिकार
३. अनुभागबन्ध अधिकार
४. प्रदेशबन्ध अधिकार
प्रथम अधिकार को सर्वबन्ध, उत्कृष्ट बन्ध और अनुत्कृष्ट बन्ध आदि उप-अधिकारों में विभक्त कर विषय का विवेचन किया है। स्थिति बन्ध अधिकार के मूल दो भेद हैं - मूल प्रकृति-स्थिति बन्ध और उत्तरपकृतिस्थितिबन्ध। मूल प्रकृति-स्थिति बन्ध का स्थितिबन्ध स्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आबाधकाण्ड प्ररूपणा और अल्पबहुत्व प्ररूपणा द्वारा विवेचन किया है। अनुभाग बन्ध अधिकार में विभिन्न कर्मों के अनुभाग पर विचार किया गया है। कर्म किस-किस रूप में फल देते हैं और उनका आत्मा के साथ किस-किस प्रकार सम्बन्ध रहता है। प्रदेश बन्ध में आत्मा और पौद्गलिक कर्मों के मिश्ररूप प्रदेश-आत्मक्षेत्र का अनेक दृष्टि से सूक्ष्मता पूर्वक विवेचन किया है।
षट्खण्डागम जैनागम का एक महान ग्रन्थ है। इसमें कर्म सिद्धांत को विभिन्न दृष्टि से समझाने का श्लाघनीय प्रयास किया गया है।
पुण्ड्रवर्धन देश में देवकीट नाम का एक नगर था जिसका प्राचीन नाम कीटिपुर था। इस नगर में सोमशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था उसकी पत्नी का नाम सोमश्री था। उससे भद्रबाहु का जन्म हुआ था। बालक स्वभाव से ही होनहार और कुशाग्रबुद्धि था। उसका क्षयोपशम और धारण शक्ति प्रबल थी। आकृति सौम्य और सुन्दर थी। वाणी मधुर और स्पष्ट थी। एक दिन वह बालक नगर के बाहर अन्य बालकों के साथ गटुओं (गोलियों) से खेल रहा था। खेलते-खेलते उसने चौदह गोलियॊं को एक पर एक पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया। उर्जयन्तगिरि (गिरनार) के भगवान नेमिनाथ की यात्रा से वापिस आते हुए चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धन स्वामी संघ सहित कोटिग्राम पहँचे। उन्होने बालक भद्रबाहु को देखकर जान लिया कि यही बालक थोड़े दिनॊं में अन्तिम श्रुतकेवली और घोर तपस्वी होगा। अतः उन्होंने उस बालक से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किसके पुत्र हो। तब भद्रबाहु ने कहा कि मैं सोमशर्मा का पुत्र हूँ और मेरा नाम भद्रबाहु है। आचार्य श्री ने कहा क्या तुम चल कर अपने पिता का घर बता सकते हो? बालक तत्काल आचार्य श्री को अपने पिता के घर ले गया। आचार्य श्री को देखकर सोमंशर्मा ने भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना की और बैठने के लिए उच्चासन दिया। आचार्यश्री ने सोमशर्मा से कहा कि आप अपना बालक हमारे साथ पढ़ने के लिये भेज दीजिये। सोमशर्मा ने आचार्यश्री से निवेदन किया कि बालक को आप खुशी से ले जाइये और पढ़ाइए। माता-पिता की आज्ञा से आचार्यश्री ने बालक को अपने संरक्षण में ले लिया और उसे सर्वविद्याएं पढ़ाईं, कुछ ही वर्षों में भद्रबाहु सब विद्याओं में निष्णात हो गया। तब गोवर्धनाचार्य ने उसे माता-पिता के पास भेज दिया। माता-पिता उसे सर्व विद्या सम्पन्न देखकर अत्यन्त हर्षित हुए भद्रबाहु ने माता पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी और वह माता-पिता की आज्ञा लेकर वापिस गुरु के पास आ गया। निष्णात बुद्धि भद्रबाहु ने महावैराग्य सम्पन्न होकर यथासमय जिनदीक्षा ले ली और दिगम्बर साधु बनकर आत्मसाधना में तत्पर हो गया।
एक दिन योगी भद्रबाहु प्रातः काल कायोत्सर्ग में लीन थे। भक्तिवश देव, असुर और मेनुष्यों से पूजित हुए। गोवर्द्धनाचार्य ने उन्हें अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित कर, संघ का सब भार भद्रबाहु को सौंप कर निःशल्य हो गए। कुछ समय बाद गोवर्द्धन स्वामी का स्वर्गवास हो गया। गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् भद्रबाहु सिद्धि सम्पन्न मुनिपुंगव हुए। कठोर तपस्वी और आत्म ध्यानी संघ का सब भार वहन करने में वे निपुण थे। वे चतुर्दशपूर्वधर और अष्टांग महानिमित्त के पारगामी श्रुतकेवली थे। अपने संघ के साथ उन्होंने अनेक देशों में विहार कर धर्मोंपदेश द्वारा जनता का महान कल्याण किया।
भद्रबाहु श्रुतकेवली यत्र तत्र देशों में अपने विशाल संघ के साथ विहार करते हुए उज्जैन पधारे और क्षिप्रा नदी के किसी उपवन में ठहरे। वहाँ सम्राट मौर्य ने उनकी वन्दना की जो उस समय प्रांतीय उपराजधानी में ठहरा हुआ था। एक दिन भद्रबाहु आहार के लिए नगरी में गए। वे एक मकान के उस भाग में उपस्थित हुए जिस में कोई मनुष्य नहीं था, किन्तु पालने में झूलते हुए एक बालक ने कहा - "मुनि! तुम यहाँ से शीघ्र चले जाओ, चले जाओ।" तब भद्रबाहु ने अपने निमित्तज्ञान से जाना कि यहाँ बारहवर्ष का भारी दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। बारह वर्ष रक वर्षा न होने के कारण अन्नादि उत्पन्न न होंगे और धन-धान्य से समृद्ध यह देश शून्य हो जायेगा और भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खा जायेगा। यह देश राजा मनुष्य और तस्करादि से वहीन हो जायेगा। ऎसा जानकर आहार लिए बिना लौट गए अरु जिन मन्दिर में आकर आवश्यक क्रिया सम्पन्न की अरु अपराह्न काल में समस्त संघ में घोषणा की कि यहाँ बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष होने वाला है। अतः सब संघ को समुद्र के समीप दक्षिण देश में जाना चाहिए। सम्राट चन्द्रगुप्त ने रात्रि में सोते हुए सोलह स्वप्न देखे। वह आचार्य भद्रबाहु से उनका फल पूछने और धर्मोपदेश सुनने के लिए उनके पास आया और उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, अपने स्वप्नों क फल पूछा तब उन्होंने बताया कि तुम्हारे स्वप्नों का फल अनिष्ट सूचक है। यहाँ बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष पड़ने वाला है उससे जनधन की बड़ी हानि होगी। चन्द्रगुप्त ने यह सुनकर, पुत्र को राज्य देकर भद्रबाहु से दीक्षा ले ली। भद्रबाहु वहाँ से ससंघ चलकर श्रवणबेलगोला तक आये। भद्रबाहु ने कहा - मेरा आयुष्य अल्प है अतः मैं यहीं रहूँगा और संघ को निर्देश दिया कि वह विशाखाचार्य के नेतृत्व में आगे चले जाएं। भद्रबाहु श्रुतकेवली होने के साथ अष्टमहानिमित्त के भी पारगामी थे। उन्हें दक्षिण देश में जैनधर्म के प्रचार की बात ज्ञात थी तभी उन्होंने बारह हजार साधुओं के विशालसंघ को दक्षिण की ओर जाने की अनुमति दी।
भद्रबाहु ने सब संघ को दक्षिण के पाण्ड्यादि देशों की ओर भेजा क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वहाँ जैन साधुओं के आचार का पूर्ण निर्वाह हो जायेगा। उस समय दक्षिण भारत में जैन धर्म पहले से ही प्रचलित था। यदि जैनधर्म का प्रसार वहाँ नहीं होता तो इतने बड़े संघ का निर्वाह वहाँ किसी तरह नहीं हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म वहाँ प्रचलित था। लंका में भी ईसवी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में जैनधर्म का प्रचार था और संघस्थ साधुओं ने भी वहाँ जैन धर्म का प्रचार किया। तमिल प्रदेश के प्राचीनतम शिलालेख मदुरै और रामनाड जिले से प्राप्त हुए है’ जो अशोक के स्तम्भों में उत्कीर्ण लिपि में है। उनका काय ई. पूर्व तीसरी शताब्दी का अन्त और दूसरी शताब्दी का प्रारम्भ माना गया है। उनका सावधानी से अवलोकन करने पर ’पल्लै’ ’मदुराई’ जैसे कुछ तमिल शब्द पहचानने में आते हैं। उस पर विद्वानों के दो मत आते हैं। प्रथम के अनुसार उन शिलालेखों की भाषा तमिल है जो अपने प्राचीनतम अविकसित रूपों में पाई जाती है और दूसरे मत के अनुसार उनकी भाषा पैशाची प्राकृत है जो पाण्ड्य देशों में प्रचलित थी। जिन स्थानों से उक्त लेख प्राप्त हुए हैं उनके निकट जैन मन्दिरों के भग्नावेश और जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ पाई जाती हैं। जिन पर सर्प का फण या तीन छ्त्र अंकित हैं।
बौद्धग्रंथ महावंश की रचना लंका के राजा घंतुसेणु (४६१-४७९ ई.) के समय हुई थी। उसमें ५४३ ई. पूर्व से लेकर ३१० ई. के काल का वर्णन है। ४३० ई. पूर्व के लगभग पाण्डुगामय राजा के राज्य काल में अनुराधापुर में राजधानी परिवर्तित हुई थी। महावंश में इस नगर की अनेक नई इमारतों का वर्णन है उनमें से एक इमारत निर्ग्रन्थों के लिये एक मन्दिर भी बनवाया था इससे स्पष्ट है कि लंका में ईसा पूर्व ५वीं शती के लगभग जैनधर्म का प्रवेश हुआ होगा।
भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त वहीं रह गए। चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र था। वे भद्रबाहु के साथ कटवप्र पर ठहर गए और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया। भद्रबाहु की समाधि का भगवती आराधना में उल्लेख मिलता है। एक गाथा में बतलाय गया है कि भद्रबाहु ने अवमौदर्य द्वारा न्यून भोजन की घोर वेदना सहकर उत्तमार्थ की प्राप्ति की। चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की बहुत सेवा की। भद्रबाहु के दिवंगत होने के बाद श्रुतकेवली का अभाव हो गया क्योंकि वे अन्तिम श्रुतकेवली थे।
दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु के जन्मादि का परिचय हरिषेण कथाकोष, श्रीचन्द्र कथाकोष और भद्रबाहु चरित आदि में मिलता है और भद्रबाहु के बाद उनकी शिष्य परम्परा अंग पूर्वादि के पाठियों के साथ चलती है जिसका परिचय आगे दिया जायेगा।
श्वेताम्बर परम्परा में कल्पसूत्र आवश्यक के सूत्र, नन्दिसूत्र, ऋषिमंडल सूत्र और हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में भद्रबाहु की जानकारी मिलती है। कल्पसूत्र की स्थविरावली में उनके चार शिष्यों का उल्लेख मिला है पर वे चारों ही स्वर्गवासी हो गए अतएव भद्रबाहु की शिष्य परम्परा आगे न बढ़ सकी किन्तु उक्त परम्परा भद्रबाहु के गुरुभाई संभूति विजय के शिष्य स्थूलभद्र से आगे बढ़ी। वहाँ स्थूलभद्र को अन्तिम केवली माना गया है। महावीर निर्वाण से १७० वें वर्ष में भद्रबाहु का स्वर्गवास हुआ है और स्थूलभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं. १५७ से २५७ तक अर्थात् ई. पूर्व २७० में या उसके कुछ कम पूर्व हुआ।
दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु का पट्टकाल २९ वर्ष माना जाता है जब कि श्वेताम्बर परम्परा में पट्टकाल १४ वर्ष बतलाय गया है तथा व्यवहार सूत्र छेदसूत्रादि ग्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा रचित कहे जाते हैं।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु का स्वर्गवास वी. निर्वाण सं. १६२ वें वर्ष अर्थात् २६५ ई. पूर्व माना जाता है। दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु के द्वारा रचित साहित्य नहीं मिलता। इसमें आठ वर्ष का अन्तर विचारणीय है।
आचार्य पुष्पदन्त-भूतवली - गुणधराचार्य के पश्चात् अंग-पूर्वों के एक देश ज्ञाता धरसेन हुए। ये सौराष्ट्र देश गिरिनार के समीप उर्जयन्त पर्वत की चन्द्रगुफा में निवास करते थे। ये परवादी रूप हाथियों के समूह का मदनाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के समान थे। अष्टांग महानिमित्त के पारगामी और लिपि शास्त्र के ज्ञाता थे। वर्तमान में उपलब्ध श्रुत की रक्षा का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं को प्राप्त है। कहा जाथ है कि प्रवचन-वत्सल धरसेनाचार्य ने अंग श्रुत के विच्छेदन हो जाने के भय से महिमा नगरी में सम्मिलित दक्षिणा पथ के आचार्यों के पास एक पत्र भेजा। पत्र में लिखे गए धरसेन के आदेश को स्वीकार कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ विविध प्रकार के चारित्र से उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित शील रूपी माता के धारी सेवा भावी देश कुल जाति से शुद्ध, समस्त कलाओं के पारगामी एवं आज्ञाकारी दो साधुओं को आंध्र देश की वन्या नदी के तट से रवाना किया। इन दोनों मुनियों के मार्ग में आते समय धरसेनाचार्य ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान श्वेत वर्ण के दो बैलों के अपने चरणों में प्रणाम करते देखा। प्रातः काल उक्त दोनों साधुओं के आने पर धरसेनाचार्य ने उन दोनों की परीक्षा ली और जब आचार्य को उनकी योग्यता पर विश्वास हो गया तब उन्होंने अपना श्रुतोपदेश देना प्रारंभ किया। जो आषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। गुरु धरसेन ने इन दोनों शिष्यों का नाम पुष्पदन्त और भूतबली रखा। गुरु के आदेश से ये शिष्य गिरनार से चलकर अंकलेश्वर आये और वहीं उन्होंने वर्षाकाल व्यतीत किया। अनन्तर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देश को और भूतबली तमिल देश की ओर चले गए।
पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर उसके अध्यापन हेतु सत्प्ररूपणा तक के सूत्रों की रचना की और उन्होंने उन सूत्रों को संशोधनार्थ भूतबली के पास भेज दिया। भूतबलि ने जिनपालित के पास उन सूत्रों को देखकर पुष्पदन्त आचार्य को अल्पायु जानकर महाकर्म प्रकृति पाहुड का विच्छेन ना हो जाये इस ध्येय से आगे द्रव्यप्रमाणादि आगम की रचना की। इन दोनों आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ षट्खण्डागम कहलाता है। इस ग्रन्थ की सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्र पुष्पदन्त ने और शेष समस्त सूत्र भूतवली के द्वारा रचित हैं अतएव यह स्पष्ट है कि श्रुत व्याख्याता धरसेन हैं और रचयिता पुष्पदन्त तथा भूतबलि।
इन आचार्यों के समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो ज्ञात नहीं है पर इन्द्र-नन्दी कृत श्रुतावतार में लोहाचार्य के पश्चात विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त इन चार आरातीय -आचार्यों का उल्लेख मिलता है और तत्पश्चात् अर्हद्बलि का तथा अर्हद्बलि के अनन्तर धरसेनाचार्य का नाम आता है। इन्द्रनन्दि के अनुसार कुन्दकुन्द षट्खण्डागम के टीकाकार हैं। अतः पुष्पदन्त और भूतबलि का समय कुन्दकुन्द के पूर्व है। विद्वानों ने अनेक पुष्ट प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि षट्ख्ण्डागम की रचना प्रथम शती में होनी चाहिए।
प्राकृत पट्टावलि में श्रुतधरों की - जो परम्परा अंकित है उससे भी षट्खण्डागम का रचना काल ई. सन् प्रथम शताब्दी आता है।
पट्टावलि के अनुसार अर्हद्बलि का समय ई. सन् ३८ है। माघनन्दि का ई. सन् ६६ और धरसेन का ई. सन् ८५ आता है। धरसेन के जीवन काल में ही षट्खण्डागम लिखा गया है। धरसेन माघनन्दि के समय में विद्यमान थे। पर पट्टावलि में माघनन्दि के पट्ट के पश्चात् ही धरसेन का निर्देश प्राप्त होता है। यों तो अर्हद्बलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि ये पाँचों आचार्य समयवर्ती हैं। पट्टावलि में इनका काल ११८ वर्ष माना गया है। अतः ई. सन् की प्रथम शती में इनका परस्पर में साक्षात्कार अवश्य हुआ होगा।
षट्खण्डागम (छक्खंडागम) सूत्र - इस आगम ग्रन्थ में छह खण्ड हैं- जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्तविचय, वंदना, वग्गणा, और महाबन्ध। इस ग्रन्थ का विषय स्तोत्र बारहवें दृष्टिवाद श्रुतांग के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व आग्रायणीय के चयनलब्धि नामक पञ्चम अधिकार के चतुर्थ पाहुड़ कर्म प्रकृति को माना जाता है।
१. जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्ड में जीव के गुण, धर्म और नाना अवस्थाओं का सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ प्ररूपणाओं का वर्णन किया गया है। इसके अनन्तर नौ चूलिकाएं हैं। जिनके नाम प्रकृति समत्कीर्त्तन, स्थानसमत्कीत्तर्न, प्रथममहादण्डक, द्वितीयमहादण्डक, तृतीय महादण्डक, उत्कृष्टस्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-अगति है। सत्प्ररूपणा के प्रथम सूत्र में पञ्चनमस्कार मण्त्र का पाठ है। इस प्ररूपणा का विषय-विवेचन ओघ और आदेश क्रम से किया गया है। ओघ में आत्मोत्क्रान्ति के द्योतक मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र अविरति आदि चौदह गुणस्थानों का और आदेश में गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद आदि चौदह मार्गणाओं का विवेचन है। सत्प्ररूपणा के ४०वें सूत्र से ४५वें सूत्र तक छह काय जीवों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। जीवों के बादर और सूक्ष्म भेदों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद किये गए हैं। वनस्पतिकाय के साधारण और प्रत्येक ये दो भेद किये हैं। जीवट्ठाण खण्ड की दूसरी प्ररूपणा द्रव्य-प्रमाणानुगम है। इसमें १९२ सूत्रों में गुणस्थान और मार्गणाक्रम से जीवों की संख्या का निर्देश किया है। इस सन्दर्भ में गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यस्त राशि आदि गणित की मौलिक प्रतिक्रियाओं का उल्लेख भी किया गया है। क्षेत्र प्ररूपणा में ९२ सूत्र हैं और विभिन्न दृष्टियों से जीव के क्षेत्र का निरूपण किया गया है। स्पर्शन प्ररूपणा में १८५ सूत्र हैं। विभिन्न दृष्टियों से जीवों के स्पर्शन क्षेत्र का निर्देश किया गया है। कालानुयोग में मर्यादाओं की कालावधि का कथन किया गया है। अन्तर प्ररूपणा में ३९७ सूत्र हैं। इन सूत्रों में बताया गया है कि जब विवक्षित गुण गुणान्तर रूप से संक्रमित हो जाता है और पुनः उसकी प्राप्ति होती है तो मध्य के काल को अन्तर कहते हैं। यह अन्तर काल सामान्य और विशेष की अपेक्षा से दो प्रकार क होता है। सूत्रकार ने एक जीव और नाना जीवों की अपेक्षा एक ही गुणस्थान और मार्गणा में रहने को जघन्य और उत्कृष्ट कालाधिक का निर्देश करते हुए अन्तरकाल का निरूपण किया है। भावानुयोग में ९३ सूत्र हैं। इन में गुणस्थान और मार्गणा क्रम से जीवों के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारणामिक भावों के भेद-प्रभेदों और स्थितियों का निरूपण किया गया है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म प्रकृतियों के उदय, उपशमादि की विभिन्न अवस्थाएं भी वर्णित हैं। अल्पबहुत्व प्ररूपणा में ३८२ सूत्र हैं। इस प्ररूपणा में नाना दृष्टियों से जीवों का हीनाधिक विवेचन किया है। अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्वी जीव अन्य सब स्थानों की अपेक्षा प्रमाण में अल्प और परस्पर तुल्य होते हैं।
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओं के अतिरिक्त जीवस्थान की नौ चूलिकाएं हैं। प्रकृतिसमुकीर्तन नाम की चूलिका में ४६ सूत्र हैं। क्षेत्र, काल और अन्तर प्ररूपणाओं में जीव के क्षेत्र और काल सम्बन्धी जो परिवर्तन किए गए हैं वे विशेष बन्ध के कारण ही उत्पन्न हो सकते हैं इन सभी चूलिकाओं में कर्म बन्ध, कर्म बन्ध का अधिकारी जीव, कर्म का आबाधा काल, कर्मों की स्थिति, आत्मोत्क्रान्ति के लिए सम्यक्त्व की आवश्यकता, सम्यक्त्व उत्पत्ति का काल आदि का विस्तृत विवेचन है। इस जीवट्ठाण खण्ड में २३७५ सूत्र हैं और यह सत्रह अधिकारों में विभाजित हैं।
२. खुद्दाबंध (क्षुद्रकबन्ध) है। सिद्धान्त की दृष्टि से यह द्वितीय खण्ड बहुत ही उपयोगी है। इसमें मार्गणास्थानों के अनुसार बन्धक और अबन्धक जीवों का विवेचन किया गया है। इसमें ग्यारह अनुयोग द्वार हैं -
१. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व
२. एक जीव की अपेक्षा काल
३. एक जीव की अपेक्षा अन्तर
४. नाना जीवों की अपेक्षा भंग विचय
५. द्रव्यप्रमाणानुगम
६. क्षेत्रानुगम
७. स्पर्शानुगम
८. नाना जीवों की अपेक्षा काल
९. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर
१०.भागा-भागानुगम
११.अल्पबहुत्वानुगम
इस द्वितीय खण्ड में १५८२ सूत्र हैं। इनमें कर्मास्रव, बन्ध, बन्ध की स्थिति, नरकादि गतियों में निवास करने जीवों के विविध परिणाम आदि का विवेचन किया है।
३. बंधसामित्तविचय (बन्धस्वामित्वविचय) - नामक तृतीय खण्ड में बन्ध के स्वामी का विचार किया गया है। विचय शब्द का अर्थ विचार, मीमांसा और परीक्षा है। यहाँ इस बात का विवेचन किया गया है कि कौन सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान और मार्गणा में संभव है अर्थात् कर्म बन्ध के स्वामी कौन से मार्गणास्थानवर्ती जीव हैं। इस खण्ड में ३२४ सूत हैं। कर्म प्रकृतियों का बन्ध, उदय, सत्त्व और बन्धव्युच्छित्ति आदि का विस्तृत विवेचन किया है।
४. वेदना खण्ड - इस खण्ड में निक्षेप, नय, नाम, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रत्यय, स्वामित्व, वेदना विधान, गति, अनन्तर, सन्निकर्ष, परिमाण, भागाभाग एवं अल्पबहुत्व इन सोलह अधिकारों द्वारा विषय का प्रतिपादन किया है। इस खण्ड में १४४९ सूत्र हैं।
५. वर्गणा खण्ड - इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगों द्वारा प्रतिपादन किया गया है। स्पर्शन अनुयोगद्वार में स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्श, नाम विधान, स्पर्शद्रब्य विधान आदि सोलह अधिकारों में स्पर्श का विचार किया गया है। कर्म अनुयोग द्वार में नामकर्म, स्थापना कर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदान कर्म, अधःकरण कर्म, ईर्यापथकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म प्ररूपणा हैं। इस खण्ड में बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध विधान का भी ७२७ सूत्रों में कथन है।
६. महाबन्ध - इसका दूसरा नाम महाधवल है। इसकी रचना आचार्य भूतबलि ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण की है। इस खण्ड में चार अधिकार हैं।
१. प्रकृतिबन्ध अधिकार
२. स्थितिबन्ध अधिकार
३. अनुभागबन्ध अधिकार
४. प्रदेशबन्ध अधिकार
प्रथम अधिकार को सर्वबन्ध, उत्कृष्ट बन्ध और अनुत्कृष्ट बन्ध आदि उप-अधिकारों में विभक्त कर विषय का विवेचन किया है। स्थिति बन्ध अधिकार के मूल दो भेद हैं - मूल प्रकृति-स्थिति बन्ध और उत्तरपकृतिस्थितिबन्ध। मूल प्रकृति-स्थिति बन्ध का स्थितिबन्ध स्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आबाधकाण्ड प्ररूपणा और अल्पबहुत्व प्ररूपणा द्वारा विवेचन किया है। अनुभाग बन्ध अधिकार में विभिन्न कर्मों के अनुभाग पर विचार किया गया है। कर्म किस-किस रूप में फल देते हैं और उनका आत्मा के साथ किस-किस प्रकार सम्बन्ध रहता है। प्रदेश बन्ध में आत्मा और पौद्गलिक कर्मों के मिश्ररूप प्रदेश-आत्मक्षेत्र का अनेक दृष्टि से सूक्ष्मता पूर्वक विवेचन किया है।
षट्खण्डागम जैनागम का एक महान ग्रन्थ है। इसमें कर्म सिद्धांत को विभिन्न दृष्टि से समझाने का श्लाघनीय प्रयास किया गया है।